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आपस्तम्ब

हे श्रमवीर तुम्हारे कुदाल ने

कंटकाकीर्ण मग सुगम किया ।

एक पैर पर थाम लिये जैसे अम्बर

कर्मयोगी सूरज भी देख तुम्हे पिघल गया ।

लज्जित हैं कर्मवंचक

अवसरवादी लोलुप तुम्हे देखकर;

प्रतिमान तुम्हे मानते जिजीविषक

स्वाभिमानी देखते तुम्हे मुड़मुड़कर।।

तुम्हे देख स्मरण हो आती

कृष्ण की कनिष्ठा पर धारित

गोवर्धन पर्वत की महत्ता!

तुम्हे देख विश्वानर का होता बोध

अंतरहित गर्भित इच्छाधारी

पीपलिका शक्तिभूत सत्ता!

स्वेद का छलछल पसीना

तटबंध बन प्रवाह से टकराता;

जैसे प्रवृत्त अर्जुन युद्ध को

समझ कर्मयोग की गीता !

चतुष्पद के पशुत्व से

द्विपदी मानव परिष्करण;

पाषाण को पाषाण से काटता

एकपदी मानव आपस्तम्बक!

-अंजनीकुमार’सुधाकर’

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