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कविता- टेढ़ी लुगाई

का कयें बैना बनत ना कैवो

अब तो  मुश्किल है दुख सैवो

बड़ी कुलच्छन बहुआ आयी

रोज रोज ही लड़े लड़ाई

एक दिन बा उठत भोर सै

रोन लगी बा जोर जोर सै

कैन लगी मैं मायके जैहों

ई घर में एक दिन ना रैहों

मैनें कई का बात बताओ

कीने का कई हमें सुनाओ

कैन लगी जौ लड़का तुमारों

रात ख़ौ मौको इत्तो मारो

मार मार कै ढीलो कर दओ

बदन हमारो नीलो कर दओ

मैं तौ रपट लिखावे जा रई

सबरन ख़ौ मैं जेल भिजा रई

पति हमाये भौत गर्राने

इन्हें तौ फांसी चढ़वाने

करके चुटिया बाहर आयी

पकड़कै मौड़ी बगल दबाई

बक्शा उठा मुढ़ी पे धर लओ

और मौडा कौ हाथ पकड़ लओ

मौड़ी मौडा दोई ढडियाने

मम्मन के घर हमें ना जाने

बा बोली इनकी दशा करादें

ई घरके खपरा बिकवादें

ससुर जेठ सबई समझा रये

नंदोई भी कौल धरा रये

बा तौ ठहरी ढीट लुगाई

बा ख़ौ लाज तनक ना आई

मायके की उने गैल जो धर लई

मैं भी ऊके पाछे चल दई

चलत चलत एक ठौर दिखानो

मैनें कई अब मेरी मानो

घरें चलो अपनो घर देखो

गुस्सा पूरो इतई पे थूकों

तैने भी ख़ूबई कै डारीं

अब काये ख़ौ मूढ़ उठा रई

कैन लगी मैं घर ना जैहों

कूद कुंआ में मैं मर जैहों

भौत मनाओ भौत समझाओ

ऊखो तनकई समझ ना आओ

मना मना खैं मैं जो हारी

तोड़ लगुदिया बा फटकारी

मार मार कै ओए सुझा दओ

मायके ख़ौ पूरौ भूत भगा दओ

ढारत असुआ पांव पकर लये

दोई हाथन सै कान पकर लये

कैन लगी मोरी सासो रानी

मैनें बात तुम्हारी मानीं

अब ना ऐसी गलती करहौं

मैं तौ संग तुम्हारे चल हों

लौट के बा फिर घर कौ आ गई

ऊकी पूरी अकड़ हिरा गई

अब साता सै घर में रै रई

मायके की कोऊ बात ना कै रई

का करते यदि जौ ना करते

टेढ़े संग ना टेढ़े बनते

बा भी पूरी बात समझ गयी

घर के बाहर डग ना धर रई ।

—- जयति जैन “नूतन”

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