Latest Updates

हिन्दी की व्यथा

ये अंधेरा क्यों है?

आज तो बत्ती जला दो,

वैसे तो कोई आता नहीं मेरे घर,

शायद आज कोई

भूले भटके आ जाये 

आज “हिन्दी दिवस  है न

किसी न किसी को तो मेरी

याद आ ही जायेगी।

सूना रहता है मेरा आंगन,

मेहमान क्या…कोई कौवा भी                                                

मेरी मुंडेर पर नहीं बैठता है।

क्या मैं इतनी कडवी हूं ?

नहीं नहीं..मैं तो बहुत मधुर हूँ,

बहुत सीधी हूँ, और बहुत

सरल भी हूँ।

क्योंकि मैं  हिन्दी हूँ

हाँ ..मेरा नाम हिन्दी है।

जो कभी भारत की शान                        

हुआ करती थी।

मुंशी प्रेमचंद जी, भारतेंदु जी, निराला जी, महादेवी वर्मा जी  सुभद्रा कुमारी जी और भी कई बड़े बड़े साहित्यकार …अक्सर मेरे यहाँ आया करते थे..मेरा आंगन महकाया करते थे।

मेरा आंगन हरा भरा रहता था।

जाने क्या हुआ ?

वही आंगन अब किसी के आने                    

की राह देखता रहता है।

हां मेरे पडोस में एक

विदेशी का घर है

उसका नाम है अंग्रेजी …

उसके घर मेला लगा रहता है,                    

बहुत रौनक रहती है,

चिराग की रोशनी होती है

जाने क्या बात है ?

हाँ …कभी कभी गाँव वाले

मुझे याद कर लिया करते हैं,

पर दफ्तरों में,पाठशालाओं में,                  

विद्यालयों में..

मुझे भूले से भी                                       

याद नहीं किया जाता,

बस साल में

एक बार मेरा जन्मदिन

मनाकर फर्ज पूरा कर

लिया जाता है।

इस अंधेरे में मेरा दम

घुट रहा है,

मुझे रोशनी चाहिए

मुझे बाहर निकालो

मुझे दफ्तरों, विद्यालयों, कचहरियों

की सैर कराओ।

सभी से मेरी पहचान कराओ,

नहीं तो मैं ऐसे ही अंधेरों में                 

गुमनाम सी भटक कर

दम तोड़ लूंगी।

कविता शर्मा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *