आज के दौर में दीपावली,
कुछ अलग सी, सिमटी सी लगती है। क्यों?
वो महीने पहले से थिरकना,
गुजिया का इठलाना शरमाना,
मठरी का वो करारा मिज़ाज,
हर घर से ख़ुशबू का आना और
धीरे से एक दूजे के घर जाना।
अरे मैं भी तो लड्डू बना लूँ !!
यों ख़ुशबू याद दिलाती थी कि
कहीं मेरी दिपावली कम न रह जाय।
रेशमी कपड़ों की वो गरमाहट
सुनार पे भी तो आना जाना है।
चूड़ियों के साथ सिक्कों की खनक,
बही का लेखा जोखा कलावे में बाँधना,
पकवानों की थालियों का बगीचा,
सजता था घर आँगन व चौक,
फूलों और दियों से ढकी ज़मीन,
बच कर चलना, लक्ष्मी जी के चिन्ह बने हैं,
ख़ुशियों का इंतज़ार नहीं था,
ख़ुशियों का बाज़ार सा लगता था ।
खील बताशों के पर्वत ही पर्वत,
खिलौनों का वो मीठा अंदाज ,
हटरी और कन्डिलों का आत्मविश्वास,
चलता था सहारा बन साथ-साथ ।
पटाखों , दियों व घंटियों का गु्न्जन,
हँसी की किलकारियाँ और
बड़ों का आदर व आशीर्वाद,
आज जब सोचती हूँ, तो लगता है,
कुछ दौर अलग है, समा अलग है,
एक दूसरे को सराहो , निखारो,
सुख दुख के संगी साथी बनो,
बदलती करवटों के साथ जियो ।
यही नयी परिभाषा, नये संस्थान हैं।
सिमटी सकुचायी मत समझो,
पंख फैलाओ और दीपमाला सजाओ,
सिमट के नहीं, खिलखिला के दिवाली मनाओ।
— डा.स्वाति सागर
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