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गीतिका (गज़ल)

तेरे होंठों की चंचल हंसी से मेरे
दिल में फूलों के जैसे चमन खिल गये
तेरी बाँहों में सिमटी तो ऐसा लगा
मेरे पहलू में धरती गगन खिल गये

तेरी धड़कन में धड़कन मेरी खो गयी
देह अधरों से पावन मेरी हो गयी
यूँ संवारा मुझे प्रीत की रीत ने
शब्द के भाव से सब वचन खिल गये

दो बदन प्रेम की आग में यूँ जले
स्वप्न कितने सुनहरे मचलने लगे
यूँ लगा जैसे जीवन सफ़ल हो गया
आत्मा खिल गयी ये नयन खिल गये

प्यास बुझती नहीं और बढ़ने लगी
मन के अंदर समुंदर का उल्लास है
ये तुम्हारी छुअन का ही एहसास है
सर से पाँव तलक हम सजन खिल गये।

निधि भार्गव मानवी
गीता कालोनी ईस्ट दिल्ली

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