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अँधेरे और उजाले

गंगा के  किनारे, यूँ हीं नहीं  लगी है भीड़ साहब।

लोगों  ने  पाप  किये  होंगे शायद  बेहिसाब।।

और वो कहता है मुझको, आओ कभी मेरे भी द्वार।

गर करते  हो मुझे से प्यार, बिना किसी दरकार।।

काश! वो तो,  मेरी  हैसियत ना पूछता।

अच्छा  होता,  गर  वो  मेरी  खैरियत   को  पूछता।।

उनका पैग़ाम नफ़रत था, मैं चुराकर मोहब्बत लाया था।

वो पूछता रहा मुझसे बार-बार, किस कोने से मैं आया था।।

लोगों ने बहुत समझाया, पर क्या करूँ मैं, कुछ समझ ना आया।

इंसान को, इंसान ही समझता रहा मैं, मज़हब कहीँ  नज़र मुझे नहीं आया।।

चाँद-सितारे भी पूछते रहते हैं मुझको अक्सर।

वो कौन है जो अंधेरों में उजाले इतने  खोज लाया।।

©डॉ. मनोज कुमार “मन”

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