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“अपने पराए”

विपत्ति के समय ही मनुष्य के चरित्र की पहचान होती है। कौन अपना है और कौन पराया है, इसका पता मुसीबत में ही लगता है। इस घटना के जो मुख्य पात्र हैं वो आज नहीं हैं। परन्तु घटना से मिली एक सीख आज भी मुझे याद है।

दादाजी के गुजर जाने के बाद की घटना है। रस्म के अनुसार अस्थियों को गंगा में प्रवाहित किया जाना था। मेरे पिता पूजा पाठ में विश्वास नहीं करते थे। परन्तु दादाजी के जाने के बाद उनकी मुक्ति के लिए वो हर रस्म निभाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने हरिद्वार जाने के लिए एक छोटी बस कर ली। जिससे परिवार या पड़ोस में से कोई भी जाना चाहे तो साथ चल सकता था।

हमारे पड़ोस के एक चाचाजी से पिताजी की उन दिनों काफी घनिष्ठता थी। वह भी अपनी पत्नी और बेटी को लेकर पिताजी के साथ हरिद्वार के लिए गए। दादीजी नहीं जा सकती थी और मैं उनके पास रुक गई। मेरी परिक्षाओं में कुछ दिन ही बचे थे। यह भी एक कारण था मेरे रुकने का। माताजी और छोटी बहन भी उनके साथ गए।

सवेरे खुशी खुशी सब लोग भजन गाते हुए बस में बैठकर हरिद्वार के लिए रवाना हुए। मैं और दादीजी घर पर ही थे इसलिए अपने कामों में लगे रहे। दिन छिप गया। वो लोग नहीं आए। हमने सोचा हरिद्वार में कई जगह हैं देखने के लिए। समय लग ही जाता है। अपनी बस है अा ही जाएंगे कुछ और देर में।

इंतजार करते करते रात हो गई। वो लोग वापस नहीं आए। उन दिनों मोबाइल भी नहीं होते थे इसलिए पूछ नहीं सकते थे कि कब तक आएंगे। हम दोनों ने एक दूसरे को समझा दिया कि उनका रात में वहीं रुकने का कार्यक्रम बन गया होगा। जबकि इस बात को मानने को मन तैयार नहीं था। पिताजी रात में कहीं नहीं रुकते थे, कितना भी जरूरी काम हो। अगली सुबह का बड़ी बेसब्री से इन्तजार था। मैं पढ़ रही थी और दादीजी नींद आने का इंतजार कर रही थी। उनको नींद कम ही आती थी। तभी पड़ोस वाले भाईसाहब आए।

सुनकर दादी भी बहुत परेशान हो गई। भाईसाहब ने समझाया “हौसला रखो। भगवान पर भरोसा रखो। सब कुछ वहीं करने वाला है। उसने चाहा तो सब ठीक होगा।” थोड़ी देर बैठकर वो चले गए। हम दोनों रात भार नहीं सो पाए। तरह तरह के ख़्याल मन में आते रहे। सोच नहीं पा रहे थे कि वहां पर क्या हुआ होगा।

सुबह हुई, लेकिन अत्यंत दुखद समाचार के साथ। चाचाजी की बेटी और उनकी पत्नी ने हस्पताल में दम तोड दिया था। माताजी और मेरी छोटी बहन को भी बहुत चोट अाई थी लेकिन वो बच गई थी। पिताजी और उनके चाचाजी सुरक्षित थे। बस रुकने पर उसको धक्का लगाने के लिए वो लोग नीचे उतरे थे। धक्का लगा तो बस फिसलकर खाई में जा गिरी।

दो तीन दिन बाद बाकी लोग हस्पताल से वापिस आ गए। दादाजी की तेरहवीं हो गई। आने जाने वालों का घर में तांता लगा हुआ था। दादाजी से अधिक चर्चा दुर्घटना को लेकर हो रही थी। जितने मुंह उतनी बातें। कुछ लोग लगातार कयास लगा रहे थे कि चाचाजी जो दुर्घटना के समय पिताजी के साथ थे, उन पर केस डालने वाले हैं। बस अपनी पत्नी की तेरहवीं  हो जाने का इंतजार कर रहे हैं। पिताजी उदास रहने लगे थे। चुप रहकर सब सुनते रहते। दादाजी की तेरहवीं में भी चाचाजी नहीं आए।

चाचीजी की तेरहवीं से पहले पिताजी के पास काफी भीड़ जमा थी। सब उन्हें समझा रहे थे कि वो चाचाजी से मिलने न जाएं। हमेशा की तरह ही वो चुप रहे।

चाचीजी की तेरहवीं वाले दिन नहा धोकर पिताजी सुबह ही चाचाजी के घर चले गए। जाकर एक कोने में बैठ गए। तेरहवीं की रस्म के दौरान सबका ध्यान पिताजी की ओर ही था। उनकी नजरें बोल रही थी कि सब उनकी वजह से ही हुआ। ये वही लोग थे जो रोज घर आकर पिताजी को चाचाजी के बारे में, बिना पूछे सूचना दिया करते थे। रस्म पूरी हुई। चाचाजी आकर पिताजी के पास बैठ गए। बैठते ही बोले ” माफ़ करना भाई तुमसे मिलने नहीं अा पाया इस दौरान। आज तेहरवी हो जाती तो कल आता आपके पास। लोगों का कहना है कि मुझे आपके ऊपर केस करना चाहिए। आपके कारण ही मेरी पत्नी और बेटी की जान गई है। परन्तु ऐसा नहीं है। मैं जानता हूं। मैं आपके साथ ही था उस मुसीबत के समय। भाभी और आपकी बिटिया भी किस्मत से बच गई हैं। ये सब लोग पास पास ही बैठे थे बस में। यही कहने कल आपके पास आना था। आज आप अा ही गए।” कहकर चाचाजी चुप हो गए। इतनी बड़ी दुर्घटना घटी, पिताजी कभी कमजोर नहीं पड़े। आज चाचाजी की बात सुनकर उनकी आंखों से अश्रु धारा बह चली। उन्होंने चाचाजी को गले से लगा लिया। तेरहवीं में पधारे सभी लोग एक एक करके जाने लगे। उनके पास कहने सुनने को अब बचा भी क्या था।

अर्चना त्यागी

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