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आत्मा

कितना हल्का हल्का सा लग रहा है शरीर। अहा! जैसे सारे तनावों और विकारों को किसी ने जड़ से उखाड़ फेंका हो!

ऐसा लगता है जैसे 30 -40 साल से नहीं सो पाई थी और आज इतनी गहरी नींद पूरी कर के उठी हूँ। सच बहुत फ्रेश लग रहा है। चलो अच्छा है जाने कब से यहाँ आँगन में तुलसी के पास लेटी थी और इतनी लम्बी बीमारी के बाद तो जैसे साँस लेना ही मुश्किल लग रहा था! डॉक्टर भी तो आया था ,इतनी सारी मशीन लगा के गया जैसे मैं अम्मा नहीं कोई चलता फिरता लैब हूँ जहाँ वो अपनी प्रैक्टिस कर रहा है.. और फीस तो भईया इतनी मोटी की पूछो ही मत।

कितना कमाता ही है मेरा दीपक? बहुत चिंता हो रही है उसकी। उसके बाबूजी का पेंशन भी तो रुका पड़ा था पर फिर भी चिंता छोड़ो सब राजी ख़ुशी ही हैं। बहू भी तो कितनी परेशान थी कल से कितनी बार लड़ चुकी है मेरे लाल से, बोल रही थी “तुम सुनते क्यों नहीं? अब वो ज़माना नहीं रहा जब मैं बैठ के तुम्हारी या अपनी माँ के पैर दबाऊँ। तुम कोई नर्स क्यों नहीं रख लेते? अब मैं 70 हजार की नौकरी छोड़ तो नहीं दूँगी!

“अरे तो तुम अम्मा का ख़याल नहीं रखोगी तो और कौन रखेगा ?

“क्यों? तुम रख लो फिर तुम्हारी तो अपनी माँ हैं भाड़े पे तो नहीं आयीं। हर काम मुझसे क्यों एक्सपेक्ट करते हो? मैं उनकी रिस्पेक्ट करती हूँ लेकिन उनके लिए नौकरी छोड़ तो नहीं सकती और फिर मकान का ई ऍम आई तो तुम्हारी सैलरी से जाता है ऐसे में मेरा कमाना भी तो जरूरी है।

दीपक बोला “अरे भाई तो तुम दोनों काम संभाल लो ना देखो अम्मा के लिए नर्स रखेंगे तो खर्चा बढ़ जाएगा।

“अच्छा तो तुम्हारा अपनी माँ के लिए कोई फ़र्ज़ नहीं? और मैं? मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूँ? अपना हर काम मुझपे मत थोपा करो दीपक। गोलू की भी तो जिम्मेदारी मुझ पे ही होती है।

दीपक लगभग ऊफनते हुए सा बोले “देखो सुरु अगर तुमसे नहीं हो रहा तो चिल्लाओ मत। ये ऐसा ही है , मेरी माँ भी तो दादी का ख़याल रखती थी वो तो कभी पापा से नहीं लड़ी?

“हाँ नहीं लड़ीं क्योंकि पापा तुम्हारी तरह तो नहीं थे वो बाहर काम करते थे और माँ घर में पर तुम्हें तो सब चाहिए माँ भी, बीवी भी, बेटा भी, नौकरी भी ।

“अच्छा ज्यादा पर्सनल मत बनो मैं देखूँगा कुछ। तुम लोगों के तो नखरे ही खत्म नहीं होते !”

बेचारी बहू पलट के मुड़ी तो मुझे देख के घबरा गई।

समझती हूँ बेटा , मैंने भी सहा है ये सब। ऐसा ही है, सदियों से है, चलता आ रहा है पर तुम दुखी मत होना मैं तुम्हें दोष नहीं दूँगी।

तुम्हारा दर्द समझ में आता है मुझे! महानगर की जिन्दगी, मकान का किराया ,बच्चे की फीस , होम लोन , कार लोन और ऊपर से स्टेटस मेंटिनेंस। चिंता मत करो मैं अपना काम कर लूंगी और फिर तुम्हारे ससुर जी हैं ना! वो मुझे संभाल लेंगे, तुम निश्चिंत होकर ऑफिस जाओ।


अरे रे रे मैं भी क्या सोच रही हूँ दालान पर बैठे बैठे? ये सब तो होता ही है और बहु को क्या कहूँ और दीपक तो लाल ही है मेरा। कल तो जब मैं कीमो थेरेपी के बाद चक्कर खा गई थी तो शैलेश भी कितना गुस्सा हो गए थे। बार-बार यही बोल रहे थे की हे भगवान इसे उठा क्यों नहीं लेते तुम? शायद मेरे साथ रोज रोज अस्पताल के चक्कर काट काट के थक गए हैं। उनकी भी तो उमर हो गई अब।


आज भी मुझे याद है जब दुल्हन बन के उनके साथ आई थी अपने ससुर जी की पुस्तैनी हवेली में। कितना खुश थे वो! और उनकी दी हुई अंगूठी! हमारी प्रथम रात्री का एकमात्र अनंत चिन्ह आज भी मेरे हाथों में है और क्यों ना पहनूं? उन्हें वचन जो दिया था की ये अंगूठी तो चिता में भी मेरे साथ ही जायेगी! फ़िर कितने स्नेह से उन्होंने हृदय से लगा लिया था । सच आज भी उनका स्नेह मुझे आत्मिक संतोष देता है ।

कितने स्नेह से बोले थे वो “मालती! ये मेरी पहली सैलरी से बनवाई है । कम पर गये इसलिए अंगूठी ही लाया।

और उतने ही चाव से पहनती थी मैं वो अंगूठी। हाँ समय के साथ स्नेह तो गहरा हुआ पर अभिव्यक्ति की आवश्यकता कम होती गयी।

प्रेम तो होता ही ऐसा है ।मेरा रूठना, शैलेश का मनाना, मनाते मनाते उनका रूठ जाना और फिर दोनों का साथ हंस पड़ना । उनका स्पर्श,उनका लगाव कितना सौभाग्यपूर्ण था मेरा जीवन ऐसे मानो कोई कमी ही नहीं रह गई हो। जैसे मैं सम्पूर्ण हूँ,जैसे मेरा प्रेम शाश्वत है,जैसे मैं तरल हो के विलीन हो गई हूँ शैलेश के अस्तित्व में कहीं।

कितना मान होता है एक स्त्री को अपने सुहाग पर और अपनी गृहस्ती पर।

यही तो आनंद है किसी के हो जाने का, किसी पर अपने एकक्षत्र अधिकार की अनुभूति का।

शैलेश का प्रेम ही तो मुझे साहस देता था हर विपरीत समय में, तब भी जब मैं मायके छोड़ के चली थी,तब भी जब अम्मा जी और ननद, देवरों -देवरानियों और जेठानियों के साथ एडजस्टमेंट की बात आती थी,तब भी जब दीपक का जन्म होने वाला था और तब भी जब नई बहू के साथ सामंजस्य की घड़ी थी!  और आज मुझे अपने हृदय से चाहने वाले शैलेश कितने आहत होकर मेरी मृत्यु माँग रहे होंगे?


लो फिर क्या क्या सोच रही हूँ! चलूँ अंदर जाकर शैलेश को बधाई दूँ बहुत दिनों से उनके हृदय से दूर कहीं मृत्यु शैया जैसी नीरस अस्पताल के बेड पर पड़ी कराह रही थी।

आज शैलेश देखेंगे कि मैं चल सकती हूँ तो वो तो खुशी से झूम उठेंगे।

और फिर आज सालगिरह भी तो है हमारी शादी की 35वीं। बच्चों से कहूँगी कि आज तो अपने अम्मा और बाबूजी को छोड़ दो!

लो भैया ये इतनी भीड़ कहां से आ गयी? अब तो अंदर जाना ही पड़ेगा। लगता है सब मेरा हाल जानने आये हैं?

अरे दीपक बेटा। अरे ओ दीपक ।।ये सुन क्यों नहीं रहा? शैलेश ! शैलेश! अजी सुनते हो देखो मैं ठीक हो गयी। तुम्हें शादी की सालगिरह मुबारक हो । अरे तुम रो क्यों रहे हो। ये लो बहू । सुरु कहाँ हो बेटा देखो मेरी बात तो सुनो। शैलेश। क्यों रोये जा रहे हो? कोई मेरी बात क्यों नहीं सुन रहा किस बात का मातम है ? जमना बेन! तुम्हीं समझाओ ना शैलेश को !

अच्छा हुआ जमना तो सुन रही है अब वो समझाएगी उन्हें।

जमना शैलेश के पास जा कर बोली “भाई साहब, चुप हो जाइए। क्या होगा रो के? बहुत सौभाग्यवती थीं मालती बहन । अपना सारा कर्म कर के विदा हुई हैं। कितनी लम्बी बीमारी से मुक्त हुई हैं। और फिर शरीर ही तो अलग हुआ है? आपके प्राण आपकी आत्मा तो एक ही है “

अरे ओ जमना…पागल हो गयी है क्या ?मैं ज़िंदा हूँ बहन । तुझे शर्म लिहाज़ ना रहा क्या? सुनती क्यों नहीं? कहां जा रही अब ऊठ कर?

अरे वो तुलसी के पास किसका शव है ? किसे क्या हो गया? नहीं ऐसा नहीं हो सकता । क्या ये शव मेरा है? क्या मैं मुक्त हो गई? हे विधाता एक आहट तो दे देता? एक बार विदा तो ले लेती उनसे!

शैलेश। शैलेश तुम मत रोओ मैं कहीं नहीं गई। तुम्हारे पास ही तो हूँ। तुम्हारे साथ । सुनो ना । शैलेश… ऐसे बच्चों की तरह फूट-फूट के रोना तुम्हें शोभा नहीं देता।

ये सुरू किससे बात कर रही फोन पर? यहां आओ बेटा सम्भालो अपने ससुर जी को।

“माँ। मेरी सास अब नहीं रहीं। कम परेशान नहीं हुए हम लेकिन फिर भी उनका आँचल मेरे सर पर था। आज तो अनाथ जैसा अनुभव हो रहा है ।”

मत रो सुरू चुप हो जा! दीपक ! उठ बेटा गोलू को सम्भाल, तेरे बाबूजी को देख।

“माँ, तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर पाया माँ। बहुत अभागा हूँ। अपना घर अपनी नौकरी अपना परिवार ही देखता रह गया। कैसा नकारा बेटा हूँ मैं।”

नहीं बेटे। यही तो जीवन है। ऐसा ही तो होता रहा है । उठ बेटा उठ अपना कर्म कर।

चलो भईया । अब विदा तो लेना ही पडेगा। पूरा आँगन दुःख के अथाह सागर में डूब रहा है।

मोहल्ले के बुजुर्ग काका ने कहा “अरे चलो। उठाओ जल्दी दीपक बेटे , कब तक अपनी माँ को रोक के रखोगे। उन्हें कंधा दो उनको मुक्त करो।“


सच हे ईश्वर। जब जिन्दा थी तब नहीं समझ पाई कि कभी इस मोड़ पर भी रहना पडेगा। जिस बेटे को इतना लाड़ करती थी जिस पति का इतना स्नेह था उनसे विदा लेना पडेगा। कितना लड़ी हूँ समाज से कभी अपने अस्तित्व के लिए, कभी नाम के लिए, कभी पहचान के लिए।

और आज देखो तो दो गज के चादर में सब छुप गया। मेरा अस्तित्व, मेरा नाम मेरा सम्बन्ध। आज मैं शव हो गयी?

सब जल्दबाजी कर रहे हैं! बताओ भैया। जिस घर की ईंट-ईंट मैंने जोड़ी थी वहाँ मुझे और रखना भी नहीं चाहते लोग। किसी को ऑफिस की हड़बड़ी है तो किसी को घर जाना है, अपना अपना घर, बिजनेस सम्भालना है।

ठीक ही तो है, ये समाज और कब तक मेरे साथ दुखी होता रहेगा। मेरे लिए मौन रह कर इनका फ़र्ज़ तो पूरा हो ही गया। बेचारे मेरी अंतिम यात्रा की तैयारी में साथ हैं यही क्या कम है?


लो अब तो लोग मेरी अंतिम यात्रा की तरफ जा रहे हैं। और राम के नाम से याद आता है हमारा तुम्हारा संबन्ध शैलेश! मेरे राम तो तुम ही थे। तुम्हारी सीता तो मैं ही थी। याद है ना हमारे वनवास के दिन और हमारी तपस्या।

खैर छोडो! मैं यहीं पत्थर पर बैठ जाती हूँ। अच्छा है। कुछ मंत्र पढ़ रहे हैं पंडित और उनका कर्मकाण्ड।

“अरे बहन तुम कौन हो?

“मैं? मैं सारिका! आज ही आयी हूँ । वो जो पीछे चिता जल रही हैं ना वो मेरी है। वो मेरा दामाद और वो मेरा बेटा। और तुम?

“मैं मालती। वो मेरे पति हैं और मेरा बेटा। अभी अभी आई हूँ।


“ओह अच्छा। बहुत बुरा लग रहा है न? कोई बात नहीं सब ठीक हो जाएगा।

वो जो भाई साहब बैठे हैं ना। वो तो मुझसे पहले ही आए थे। बड़े बिजनेसमैन थे। अब देखो चिता जली भी नहीं और बेटे आपस में लड़ने लगे। और वो जो खिचड़ी बालों वाला आदमी हैं ना। वो तो कोई बदमाश खूनी था। उसकी आत्मा अशांत है सब चले गए।वो एक माह से यहीं है। उसका बुलावा ही नहीं आया। अब समझेगा कि ईश्वर का घर कोई संसद नहीं और कोई सरकारी महकमा नहीं जहां घूस देकर घुसा जा सके। और घूस देगा भी क्या।

तन पर दो मीटर कपड़ा ही तो साथ जलता है। सब कमाई सम्पत्ति तो यहीं छूट गयी। काश कुछ अच्छा कर लेता तो ईश्वर का दरवाजा तो खुल जाता। खैर! चलो बहन मैं चलती हूँ।

सारिका ने कितनी सही बात कही है, कैसे मोह में पड़े रहते हैं हम ।

“उम्र के अंतिम पड़ाव में आकर भी बचत जारी है…

कोई कह दो उन्हें ,वहाँ तक मालगाड़ियां नहीं जातीं।।”


सब एक दिन यहीं तो आते हैं। चलो शैलेश।मेरे राम। तुम्हारे चरण छू लूँ। हां वही चरण जिनमें कभी मेरा प्रेम था और मुझे हृदय तक तुम्हारा प्रेम ही तो पूर्ण करता था।

अब विदा लूँ।

अपने राम के इंतजार में रहूंगी मैं, तुम अपने कर्म पूरे कर के आ जाना अपनी सीता के पास।

तुम्हारी चिर संगिनी “मालती”।

एक हवा और शैलेश के ह्रदय का स्पर्श करती मालती का प्रयाण।

यही तो सत्य है। यही तो शाश्वत है। यही तो मोह है।

(शुभांगी ‘चन्द्रिका’)

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