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काफल (एक सत्य कथा )

(ये बात एक सच्ची घटना पर आधरित एक सच्चा लेख है़ ! जिसको की मैने जब सुना तो इस घटना को लिखे बिना नहीं रह पाया ! वेसे तो यहाँ कई घटनाए कहानियो का रूप ले चुकी है़ ! मानकों द्वारा ये भी नहीं की कभी इस घटना को मुद्रित नहीं किया गया होगा ! ये पौड़ी गढ़वाल पर आधरित घटना है़ ! जो की उत्तराखण्ड के किसी गाँव की सच्ची कहानी है़ ! किन्तु इसके पत्र व किरदारो के नाम बदल दिए गये है़ ! मैं (लेखक ) इस घटना से बहूत प्रभावित हुआ और मैने इस सच्ची घटना को आप सभी तक पहुचाने की एक छोटी सी पहल की है़ ! यदि किसी व्यक्ति विशेष को कोई ठेस मेरे कारण लगी हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ !)

*कथा ***

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बसन्ता एक परिवार ग़रीब महिला थी , जिसके पति का निधन हो चुका था ! बसन्ता का एक बेटा व एक बेटी थी ! बेटे का नाम हीमु था ! जो की तब पैदा हुआ था जब बर्फ और सर्दी का महीना था .एक बेटी थी जिसका नाम बुँदकी था .बुँदकी के जन्म की कोई दिन वार याद उसकी माँ बसन्ता को नहीं था !हीमु माँ के साथ घर के कामों में हाथ बटाता था ! और स्कूल पढ़ने के लिए भी बहूत दूर जाता था ! अपने गाँव से लगभग 3 कोस जाता था ताकि पढ़ लिख कर कोई काम कर सके ! आखिर माँ और बुँदकी की देखभाल भी हीमु को ही करनी थी ! बुँदकी भी छोटी थी लकड़ी घास का काम किया करती थी ! हीमु की माँ के पास पैसे नहीं थे की दोनो भाई-बहन को स्कूल भेज सके ! बुँदकी अक्सर जब भी अपने साथ की लडकियो को स्कूल जाते देखती थो ! तो सोचती थी की काश मैं भी स्कूल जा पाती ! अपनी सहेलियों के संग ,पर नहीं जा सकी ! अब बुँदकी को माँ के साथ ही काम करना था ! कभी बुँदकी सोचती की काश मेरा भी पिता जी होते ? तो मुझे ये काम ना करना पड़ता !

किन्तु बुँदकी अपने काम में ख़ुश थी ! अब गर्मियो का समय आया तो बसन्ता ने सोचा की चलो मैं जंगल से काफल * ला कर अगर जो बेचूंगी , तो कम से कम कुछ दिन का गुजारा तो हो ही जाएगा ! तब एक दिन सुबह सुबह बुँदकी और उसकी माँ दोनो जँगल को काफल लेने निकले ! दोनो ने जी तोड़ मेहनत की और एक टोकरी काफल जमा कर ली ! अब बसन्ता ने बुँदकी को क़हा की मैं थोड़ा लकड़ी और घास काट लू तब तक यही बैठे रहना ! और हाँ *काफल मत खाना , ये हमारी कमाई के लिए है़ ! इसमे से एक भी दाना कम हुआ तो मैं तुझे खूब मरूंगी !ये कह कर बसन्ता चली गयी !

 बस अब जैसे जैसे समय गुजरता गया काफल सूखने लगे ! अब बुँदकी को चिन्ता सताने लगी की माँ क्या कहेगी ! बस थोड़ी देर में बुँदकी की माँ आ गयी ! उसने बुँदकी से क़हा ये काफल तूने खा लिए और कम कर दिए ! मैने तुझको मना किया था खाने को , बस ये कह कर उसने बुँदकी की पिटाई शुरू कर दी ! बुँदकी ने अपनी सफ़ाई में बहूत कुछ क़हा मगर उसकी माँ ने एक ना सुनी ! अंततः बुँदकी एक तो सारा दिन की भूखी प्यासी ………ज्यादा मार झेल न सकी और प्राण छोड दिए ! बुँदकी के प्राण छोड़ते ही बुँदकी की माँ को

अपने किए पर पछतावा होने लगा की मैने कर डाला ! बाद में बसन्ता को स्वंय समझ में आ गया की काफल जैसे जैसे दिन बढ़ता गया खुद-ब -ख़ुद सुख कर कम होते गये .सूखने के कारण ! अब बसन्ता क्या करें ! अब ना बेटी रही , ना काफल .बसन्ता की गलती के कारण बेटी भी गयी .जो उसका हाथ बाँटाती थी ! बस ठीक उसी दिन से बुँदकी का प्राण एक चिड़िया में आ गया !अब जब भी गढ़वाली माह ( बैसाख , जेठ ) मई , जून आता है़ ! तब वो चिड़िया का मधुर रुदन स्वर पहाडो के जंगलो में सुनायीं देता है़ *काफल पाकौ , काफल पाकौ, काफल पाकौ (आप सभी ने सुना होगा जब भी उत्तराखण्ड घूमने गये होंगे आप सभी को भी ये ध्वनि सुनाई दी होगी)बस अब बुँदकी हमारे बीच न रही ! किन्तु वो रुधन स्वर आज भी हमारे बीच में उत्तराखण्ड के पहाड़ के जंगलो में पायी जाने वाली चिड़िया के स्वर के रूप में गढ़वाल के जंगलो मे गूंजता रहता है…….!

 समाप्त

लेखक … ©मार्टिन उमेद नज्मी

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