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खुराक (कहानी)

गर्मी की चिलचिलाती धूप में, खड़ी दोपहरी

में चरवाहे किसी पेड़ के नीचे बैठ जाते ,अपनी अपनी पोटली खोलते खाना खाते तथा वहीं पास के किसी कुएँ या तालाब का पानी पीकर कुछ देर आराम करते थे।उनके आसपास ही पेड़ों की छाया में उनके गाय ,बछड़े, भैंस भी वहीं पास में आज्ञाकारी बच्चे की तरह बैठ जाते थे।थोड़ी शाम होने पर वे फिर घास चरते और पानी पीते। सूर्य डूबने लगता तब गोधूलिवेला में चरवाहे अपने अपने जानवरों के साथ अपने अपने मालिक के घरों की ओर चल देते।जानवर घर आकर सीधे अपनी अपनी थान पर जा लगते ।हरवाहे उनको पहले खूँटे से बाँधते फिर हाथ मुँह धोकर कुछ खाने के लिए माँगते थे।

          इन्हीं चरवाहों में एक दस बारह वर्ष का

एक बालक जीतू भी था। उसकी मालकिन साहिबा नीलिमा वैसे तो बहुत पूजापाठ करने वाली एक कर्मकांडी महिला थीं पर उनका दिल बहुत ही छोटा सा था या वे कुछ समझदार कम थीं। वे दोपहर के लिए जीतू को चार रोटियाँ गिन कर देतीं साथ में कभी अचार तो कभी प्याज रख देती थी। कभी कभार  ही सूखी सब्जी देती थीं। सुबह व रात में जब जीतू खाना खाने बैठता तो एक एक रोटी गिन कर देती थीं।एक दो तीन चार ——–आठ। इसपर वे अपना सिर पकड़ लेतीं थीं।

       वास्तव में होता यह था की वे बहुत ही पतली रोटियाँ बनाती थीं जो किसी आदमी के लिए मात्र दो कौर ही था। एक दिन इसी बात की चर्चा उन्होंने बगल में रहने वाली सोनी से भी की।

    “सोनी बेटा, आजकल मैं बहुत परेशान हूँ।”

   “क्या हुआ अम्मा, इतनी परेशान क्यों हो?”

  “क्या बताऊँ बच्ची मेरा चरवाहा जित्तू है ना–।”

  “क्या हुआ जित्तू को?”

   “अरे उसे कुछ नहीं हुआ, उसकी खुराक गजब

की है पूरे आठ रोटी खा जाता है?”

   सोनी हँस पड़ी,” अम्मा तुम भी ना,अरे तुम्हारी

रोटी ही ऐसी होती है की फूँक मार दो तो उड़ जाये। मैंने देखी है तुम्हारी रोटी।”

  “अरे वही रोटी तो तुम्हारे बाबा और चाचा भी तो

खाते हैं और मैं भी तो खाती हूँ।”

   “ठीक है अम्मा, तुम भी वही खाती हो और घर में बाकी लोग भी।परन्तु तुम सब साथ ही साथ दही मट्ठा भी लेते हो। दिन में फल भी खा लेते हो और रात में दूध भी लेते हो। क्या यह सब जित्तू को भी देती हो?”

  “नहीं उसे क्यों देंगे ?”

  “फिर? उसे तो वही रोटी ही खाकर पेट भरना

है ,वह भी तुम्हारी स्पेशल रोटी।” सोनी फिर हँस

पड़ी।

   नीलिमा  सोनी पर बड़बड़ाती  हुई वहाँ से चली

गयीं। घर जाकर उनको सोनी की कही हुई बातें

याद आने लगीं।उन्हें अपने किये पर पछतावा भी

हो रहा था ।

       दूसरे दिन जित्तू के खाने में सब्जी और दही भी था। जित्तू बड़े आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगा , अम्मा?

 “क्या हुआ ? खाता क्यों नहीं ?

  “यह मेरा खाना है?”

  “हाँ तेरा ही खाना है,चुपचाप खा ले।”

   जित्तू की आँखों से दो बूँद आँसू छलक पड़े,वह

जल्दी जल्दी खाना खाने लगा। उसके आँखों में

आँसू देखकर नीलिमा की आँखें भी नम हो गयीं।

उन्होंने जित्तू के दोपहर के खाने में सब्जी भी रख दी।एक पुराना छोटा सा डोल निकालकर साफ किया तथा उसमें मट्ठा भरकर जित्तू के खाने के साथ में थमा दिया ,”बेटा खाना खाने के बाद इसे भी पी लेना।”

      जित्तू के चेहरे की खुशी को देखकर नीलिमा के चेहरे पर एक अलग ही सन्तुष्टि नजर आ रही

थी। अब वे उसकी खुराक से परेशान नहीं थीं।

डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”

 दिल्ली

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