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जिसे तू क़बूल कर ले वो दुआ कहाँ से लाऊँ

कविता मल्होत्रा (स्थायी स्तंभकार)

स्वार्थ साधते, नए युग में पदार्पण, खुद आगे बढ़ने के लिए दूसरों को नीचे गिराता मानवता का पतन, नई सदी में अपनत्व का तर्पण, क्या यही है मेरे सपनों का भारत?

जब तक समूचे वतन की सम्मिलित सोच इस समस्या का सामूहिक समाधान नहीं तलाशेगी, तब तक, कोई हल नहीं निकलने वाला।

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वो डाकघर कहाँ हैं ? जो तुम तक मेरा ख़त पहुँचाएँ

वो वात्सल्यपूर्ण नैन कहाँ हैं?जो मेरी बेचैनी पढ़ पाएँ

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संगमरमरी महल, बैंक बैलेंस, उच्च शैक्षणिक उपाधियाँ, लँबी कारें और मेक ओवर से हासिल किए तिलस्मी चेहरे पाकर हो मत जाना मग़रूर

सजदों में अगर न हो तहज़ीब, न मिले रब की रहमत, न ही खुलते वहाँ नसीब, गूगल से नहीं, बेबस आँखों की चमक बन कर हुए ढाई अक्षर मशहूर

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वरिष्ठ नागरिक दिवस पर आयोजित कोई भी आयोजन क्या कभी सूनी आँखों की खोई हुई चमक लौटा सकता है?

क्या भेंट में दी गई कोई भी कलाकृति सूनी गोद में खेलते मासूम बचपन की जगह ले सकती है?

बिल्कुल नहीं, क्यूँकि वात्सल्य का कोई विकल्प नहीं होता।

अपनी आज़ादी, अपनी महत्वाकांक्षाएँ, और अपने अधिकारों को सर्वोपरि रखती हुई आज की युवा पीढ़ी, डिजिटल मीडिया के माध्यम से संस्कृति का प्रचार तो कर सकती है, लेकिन संस्कृति की बुनियाद में अपने ही कर कमलों से लगाई गई, दायित्वों को नजरअँदाज़ करती दीमक, का कोई समाधान तब तक नहीं खोज सकती जब तक उसे स्वँय के अस्तित्व का ही बोध न हो।जब तक अपने जीवन का उद्देश्य ही पता न हो, तो किसी भी महँगे और ब्राँड के वाहन की सवारी, कभी किसी को मँज़िल की दिशा में सफ़र नहीं करवा सकती।

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माँ बाप के प्रतीक्षारत नयनों की मद्धम होती,ज्योति जलाए

बन कर संस्कृति की पहचान, वही सीप का मोती कहलाए

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जिन सपूतों ने मातृभूमि के सजदे में अपनी शहादत देकर इतिहास रचा है आज उन एैतिहासिक पन्नों पर हिंसा की गर्द पड़ने से अहिंसा की छवि धूमिल सी होती प्रतीत होने लगी है।क्यूँ न वक़्त रहते मन के रास्ते वतन की स्वच्छता पर विशेष ध्यान दिया जाए, जिससे स्वस्थ भारत के निर्माण में सामूहिक योगदान दिया जा सके।

जी तो चाहता है कि समूचे भारत में अहिंसा दिवस का ज़श्न इतिहास रचे। लेकिन जब तक परस्पर ईर्ष्या-द्वेष की सत्ता क़ायम है तब तक कोई भी विशेष दिवस केवल एक आडँबर तो रच सकता है लेकिन कोई क्राँति नहीं ला सकता।

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सीनियर सिटीजंस डे है तो चंद श्रृद्धा सुमन भेंट कर दो, चार पंक्तियों के भाषण दे दो,एक आध उपहार दे दो, बस हो गई ख़ानापूर्ति।

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विश्व शाकाहारी दिवस है तो उस दिन मांसाहारी व्यंजनों पर प्रतिबंध लगाकर रात के बारह बजे जम कर छक लो।

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बालिका दिवस है तो बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के नारे लगा लो। नुक्कड़ नाटक करवा लो। महिला सशक्तिकरण पर भाषण करवा लो। बाकी 364 दिन जम कर उनका मानसिक शोषण करो।

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जब तक मनुष्य के मानसिक प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं होगा तब तक गाँधी जयँती के बावजूद गाँधी जी के विचारों की धज्जियाँ उड़ेंगी और अहिंसा की लौ केवल एक ख़्याल बन कर दम तोड़ देगी।

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मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर तमाम मनोचिकित्सकों की कान्फ्रेंस करवा लो मगर जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी तब तक कुछ बदलाव नहीं आने वाला।

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साल का हर एक दिन किसी न किसी विशेष महत्व के लिए जाना जाता है। लेकिन जब विशेषताएँ ही अपना वजूद खोने लगीं हैं, तो केवल दिनों की व्याख्या से और उन विशेषताओं पर होने वाले विशेष आयोजनों से सिवा समय और पैसे की बर्बादी के कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिलने वाला।

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लाल बहादुर शास्त्री जी के सपनों का भारत क्या एैसा था? गाँधी जी के सपनों का भारत तो एैसा बिल्कुल नहीं था।

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सुनो ना गाँधी

रोको स्वार्थ की आँधी

हर दिन हर उम्र के लोग सम्मानित हों

नकारात्मकता हर क्षेत्र में प्रतिबंधित हो

सात्विक सबका आहार और नेक विचार हों

परस्पर निःस्वार्थ प्रेम और भाईचारा कारोबार हो

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