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ग़ज़ल,

शराफत हम से कहती है,शराफत से जिया जाए,

कोई हद भी तो होती है,कहाँ तक चुप रहा जाए।

ग़ज़ल से गुफ़्तगू हमने इशारों में बहुत कर ली,

मगर अब दिल ये कहता है कि कुछ खुल कर कहा जाये।

अभी ज़िंदा हैं हम साँसें भी अपनी चल रहीं हैं न,

तो फिर क्यों ना बुरे दिन को भी अच्छा दिन कहा जाये

हमारे तंग हाथों की दुआएं कौन सुनता है,

दुआ कीजे कि अब तो अर्श पर अपनी दुआ जाये।

हम इस मकसद से दिन में जाने कितने ट्वीट करते हैं,

किसी अखबार में शायद हमारा नाम आ जाये।

अमल हम खुद नहीं करते मगर औरों से कहते हैं ,

हमारा मशविरा शायद तुम्हारे काम आ जाये।

हमारे घर का आलम भी सिनेमाघर सरीखा है,

तो क्या शमशान में जाकर पढ़ा जाये,लिखा जाए।

अशोक मिज़ाज

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