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अन्तर्द्वन्द्व—(कहानी) : आशा सहाय

सन्नाटा है चारो तरफ।मैं चीख रही हूँ।लगता है, दूर दूर तक मेरी चीख की आवाज पहुँच गयी होगी।पर, नहीं – कहींकोई आवाज नहीं।एक गहरे सन्नाटे की ध्वनिसे भरा पड़ा है सबकुछ।सन्नाटे की एक विचित्र सी गूँज मस्तिष्क को बौखलाहट से भर रही है।और अधिक जोर से चीखने का मन हो  रहा है।पर,चीख जैसे मेरे अन्दर वापस आ जा रही है।गलियों की भटकन भी उसे नहीं मिली शायद।सब ज्यों का त्यों है।एक धुँधने सबको लपेट रखा है।वृक्षों के काले साये ही दीख रहे।आकाश जैसे छटपट कर रहा है।चीख उसे भी  नागवार लग रही है।हवाएँ भी स्तब्ध हैं।मिट्टी बदरंग सी आँखों को धोखा दे रही है।मैं चीख रही हूँ।घुट रही है चीख शायद।पदचापों नेसन्नाटे में फाँकें बना दी हैं।मेरी चीख रुक गयी है।पर येपदचाप –ध्वनियाँ हैं कि मुझे घायल करने को बढ़ते कदम!।हाँ घायल।मैं या मेरी आत्मा!

मेरी चीख अब मेरी ओर ही मुड़ना चाहती है।कोई लाभ नहीं।घायल आत्मा की पीड़ा से लड़ना होगा।पीड़ा –असह्य होते होते जो अचानक सह्य हो जाती है।मैं नींद में हूँ क्या! कहीं प्यालियों की खनखनाहट सी क्यों सुनाई दे रही।शायद नींद में थी।घबराहट के पसीने से लथपथ।मन थोड़ा और मजबूत ही हो गया है।चहलकदमी ने थोड़ा और बल दिया है।धुंध थी बाहर पर अब छितरे हुए मकान कुछ साफ होने लगे हैं।घर,—आवास ,–हाँ आवास ही संकटों की जड़ है। आवास-!दीवारें बदरँग हो रही हैं।बाउन्ड्री की दीवारों को काईयों ने पकड़ रखा है।साफ नहीं होगी जल्दी। धीमी गति से उत्पन्न धीमी गति से ही साफ होगी।मैं बरामदे की सीढ़ियों से नीचे उतर आई हूँ।गेट खोलकर बाहर की तरफ तेजी सेचलते चलते ही एक बिजली के खम्भे से जा टकरायी।खम्भा लकड़ी का था और जर्जर हो चला था।पर बदलना इतना आसान भी नहीं था।गाँव– जंगल और इन चीजों पर स्वत्व की पकड़ आसान नहीं थी। सामूहिक निर्णय की आवश्यकता  होगी।सिर थाम मैंने उसी खम्भे को पकड़ लिया।कुछ प्रकृतिस्थ होते ही अनायास पैर उधर ही आगे बढ़ चले।ऊँची नीची जमीन, बड़ी बड़ी शिलाएँऔर इन सबों के बीच वानस्पतिक जीवन की सघनता।बड़ी सम्हाल की आवश्यकता होती है।पैर शिलाऔं पर पड़ें कि वनस्पतियों पर।उसने इधर उधर देखा, एक पतली सी पगडंडी पकड़ी,। शायद यह सुरक्षित था।धुंध बिल्कुल ही छँट गयी थी।हरियाली पर औस की बूँदें झिलमिल कर रही थी,छूते ही ढह जा रही थी।बिना छुए रहा भी नहीं जा रहा था।बूटों का रंग निखर आया था।आँखें अनिवार्यतः बँधी जा रही थीं।साड़ी का एक छोरकाँटों में फँस गया था।पलट कर देखा—काँटे ही काँटे। इन काटों को उसने पार किया तो कैसे।कपड़ों में काँटे फँसे हुए थे।निकालना इतना आसान भी नहीं था।इनके साथ ही आगे बढ.ने का निश्चय किया उसने।काँटे कपड़ों को पारकर तन में चुभ रहे थे।बार बार की चुभन व्याकुल कर रही थी।पर व्याकुलता से उभरना भी तो आवश्यक है।काँटों का काम चुभना ही हैऔर वेवनस्पतियों के बीचछिपे मानों चुपचाप अपने अस्तित्व की रक्षा करते हैं।

                        उसका मन विगलित हो रहा था।पर क्रन्दन के लिऎ कोई राह भी नहीं थी।एक क्रन्दन अनेक क्रन्दनों को जन्म दे देता।पर उसे रोकना भी कठिन सिद्ध हो रहा था। बिना उह आह किए ही आगे बढ़ना था।अधसूखे से एक झाड़ की एक शाखा पकड़ में आ गई।टूटकर वह उसके हाथों का सहारा बन गई।सामने की शिला पारकर देखा। दूर दूर तक शान्ति का साम्राज्य । घास का विस्तीर्णदृश्य आँखों को सुकून देता सा प्रतीत हो रहा था।बीच बीच में लम्बे लम्बे वृक्ष। कुछ सीधे कुछ झुके  कुछ जले अधजले।ग्रामीणों से सुना था कभी कभी अपने आप ही आग लग जायाकरती है।वहा बैठकर आकाश के नीलेपन में तैरते सफेद बादलों पर दृष्टि अनायास चली गयी।आकाश के अदृश्य छोर से मन जुड़ने लगा।ध्यानस्थ सी उपर टँगी आँखों को जैसे एक टिकाव मिल गया।दूसरे टीले से कोई आता सा दीखा।हाथों को हिलाते हुए तेज कदमों सेचलने की कोशिश करते। तारा –हाँ तारा ही थी वह।शायद उसे ढूढ़ती हुई आरही थी।कई दिनों से वह छुट्टियाँ बिताने यहाँ उसके पास थी ।मोहाविष्ट मनउसकी और आकृष्ट हो गया।मेरे मन के उद्वेलनों के उतार चढ़ाव सेपरिचित होनेकीकोशिश में कभी कभी स्वयं उद्वेलित हो जा रही थी।

    —रोको—अपने को रोको।यह दुनिया है शाश्वती।एक ही आघात से विक्षिप्तप्राय हो जाओगी तोआगे केआघातों को शरण कैसे दे पाओगी।

–हाँ ठीक कहा तुमने—पर काँटे चुभते ही हैं हमेशा।

—-तुम अलग हो यह एहसास नहीं क्या तुम्हे।

   —    है। पर—लोग सामान्य प्रतिक्रियाऎँ चाहते हैं ,तारा—

     —भूल जाओ।सहने की आदत डालो।

     –और प्रतिक्रियाएँ?—उनका क्या करूँ।

     —कुछ नहीं कर सकतीं। उनके मनोनुकूल प्रतिक्रियाएँ तुम नहीं दे सकतीं।

    ——फिर तो चोटें ही लगेगीं न।

शाश्वती आँखों काभार सम्हाल नहीं पा रही थी ।तारा ने उसके कन्धों पर हाथ रक्खा,बाँहें पकड़ी, उठा लिया।

—चलो, इनके ऊँचे नीचे विचारों वाले मन के अन्दर झाँक कर देखो तो—शायद प्रतिक्रियाएं सहज हो जाएँ।

    –देखती हूँ —दुनिया  सरल बातों को उन्ही सरलता से ग्रहण नहीं करती ,उसमें पेँचें निकालती है।

    —हाँ—किन्तु , उनकी सोच के स्तर पर आ जाओ तो भूल मालूम होगी।

   —ऐसी पेंचें जिसकी उसने पहले कल्पना तक नहीं की होती है।उदारमन वक्तव्यों को टेढ़ी कर देने की कला उन्हें आती है।किसी के समरस हुए अंतर को उघाड़ देने की कला भी।

   —-तो फिर परेशान क्यों हो—वे आज के संघर्ष में जीनेवाले लोग हैं।

 सुबी ने ऐसा ही किया उसके साथ।उम्र से बहुत छोटी पर पूर्ण वयस्क।और वयस्क मानसिकता उम्र के फर्क को मान्यता नहीं देती। शाश्वती बढ़ी हुई उम्रके साथ अपने निष्पक्ष ,निर्भीक ,सरल  बयानों की निष्पक्षता की रक्षा इसीलिए नहीं कर सकी शायद।ऐसा अक्सर होता था।फिर वह दिग्विमूढ़ हो जाया करती।उसके समक्ष सुबी के व्यक्तित्व की पेचीदगियाँ उभर आतीं। उसके अन्तर्मन की सम्पूर्ण बुनावट खुलने लगती।उसकी प्रतिक्रियाएँमकड़े की जाले की भाँति ही उसे अपने मे लपेटने लगतीं।उसके व्यक्तित्व से अनायास ही एक मनोवैज्ञानिक की भाँति ऐसे तत्व ढूँढ़ निकालती जिसकी वह कल्पना तक नहीं कर पाती।-व्यक्तित्व के अंग नहीं होते थे वे वक्तव्य ।वह इसलिए भी कि सुबी को उसनेअपने अत्यधिक निकट समझा—अपनी बातोंको सरलता से समझने के योग्य भी।

                 परशायद यह सम्पूर्णतः ऐसा ही नहीं था।सुबी ने बहुत अकेलेपन को झेला था।अकेलेपनमें लिए गएबड़े बड़े महत्वपूर्ण निर्णयो  नेउसेसख्त बनादिया था। सरलता से मुँह मोड़ना भी सिखा दिया था।आरंभिक दिनों की उसकी सरलता महत्वाकाँक्षाओं के आड़े आने लगी थीं।और,उसने लोगोंमेंपेचीदगियाँ देखने की कवायद की थी।परिणामतःस्वभाव कीइस खासियत नेअन्यों की सरलता को घायल करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया ।इससे उसके कार्यों के प्रतिअपनी निष्ठा प्रभावित नहीं होतीथी पर अन्यों का नहस्तक्षेप सहन होता था और नउनके सरल सहज वक्तव्यों पर विश्वास।उसकी कर्मठता की यह विशेषता तो थी ही, पर किसी के उद्देश्यों पर अनावश्यक प्रहारों का मार्ग भी खोल ही देती थी। जैसे जीवन के भुगतानों का व्यवहारों से कोई बदला ले रही हो।दृष्टि बहुत पैनी थी। जीवन में आए बदलावोंमे माध्यम बने व्यक्तियों के प्रति कड़ुआहट वह विस्मृत नहीं कर सकती थी।पर, मूल प्रकृति की सरलता उसे कभी कभी ठगती भी थी,और ठगे जाने का एहसास उसे अधिक असहिष्णु बनाता चला जा रहा था।एक हद को पारकर यह असहिष्णुता कटुता में परिवर्तित हो जाती है।

बदला हाँ, बदला लेने की निभृत ईच्छा किसी केभी प्रतितर्क वितर्क की पराकाष्ठा तक पहुँचा देती थी।व्यक्ति कोई भी हो,निजी पारिवारिक,सामाजिक, या समाज के बाहरव्यवसाय से सम्बद्धही क्यों न –,व्यवहारों के कटु अनोखापन से सभी दो चार हो जा सकते थे।उसकी उपस्थिति में सब स्वयं अनुकूल व्यवहार की चेष्टा करते थे।

स्वभाव के मूल की स्नेहिल स्थिति अपनों से विलग नहीं होने देती पर व्यवहार में किसी पर भी आघात कर देना उसके लिए सहज हो जाता।कब कौन सी बात अन्तर्मन मे छुपे घाव को उघाड़ दे ,चोटिल कर दे,कहा नहीं जा सकता।बचपना,प्रौढ़त्व,सरलता, वक्रत्व,कटुता और मधुरता का विरल सम्मिश्रण था उसका व्यक्तित्व।इनमें किसी का आहत होना उसे स्वीकार नहीं था।एक व्यक्तित्वके अनुकूल आचरण कर ,उसके दूसरे व्यक्तित्व को भुलादेना ही अपराध होता।

सबकुछ समझते हुए भी शाश्वती की सरल ,समरस प्रवहमान भावनाएँ ,सरल बातों के रूप मेंइस भाँ ति जब उभर आतीं कि उनमें सच्चाई है ,जो किसी को चोट पहुँ चाने के लिए नहीं बल्कि सत्य बयाँ करने के लिए है तोउस सच्चाई का कहीं से भी लक्ष्यार्थया व्यंग्यार्थ  उभर ही आताजो उसके अन्तर्मन को चौंका देती और अपनी सुरक्षा की किलेबंदी मे वह बिल्कुल ही चौकस हो उठती। शाश्वती समझ नहीं पाती कि कैसे वह क्या करे। समझ नहीं पाती कि गलत कौन है—वह या सुबी।अजब स्थिति होती थी जब ऐसी सरल अभिव्यक्तियाँसुबी के व्यक्तित्व से अनजुड़ी हो उठती थी।

शाश्वती अपने व्यक्तित्व से भी अनभिज्ञ हो उठी।इतनी सहजता, इतने खुलेपन सेकिसी अन्य व्यक्तित्व से पेश आना असहजता को जन्म दे  सकता है, शायद यह मापना उसके वशकी बात नहीं रह गई थी।व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के अनुरूपआचरण करने की उसकी ईच्छा ने प्रयत्नों के आगे जैसे हाथ डाल दिए थे।परिणामतः स्पष्ट बयानों क घेरे में स्वयं ही घिर जाया करती ।कल ऐसी ही एक स्थिति सेदो चार होने पर सुबी ने जैसे रिश्ते तोड़ने जैसी मौनता को अंगीकार कर लिया था।बार बार शाश्वती का यह कहना किउसने कलम उठाने पर यह कहा था—“सुबी—मैं यह कलम ले रही हूँ अगर सको तो दूसरी पैकेट मँगा लो, यह पूरी ही मैं ले लूँगी।–“सुबी ने शायद  सुना नहीं था—या सुनकर विस्मृत हो गया हो—या शाश्वती नेमनही में यह संकल्प जाहिर कर दिया हो –पता नहीं।पर सुबी के पूछने पर उसने बड़ी सरलता से उक्त वक्तव्य का हवाला दे दिया था।

सुबी मानने को तैयार नहीं थी।शाश्वती अपने उस वक्तव्य को किसी प्रकार मिथ्या स्वीकार नहीं कर पा रही थी।मिथ्याभाषणको अपनी प्रकृतिविरुद्धता मानते हुए अपने अहं को चोटिल भी नहीं देख सकती थी।

—आप गलत बोल रही हैं शाश्वती जी।

–मै गलत नहीं हूँ।।

—मैंने सुना ही नहीं।

–पर मैंने तो कहा था।

—नहीं कहा था आपने। कहने पर मैं अवश्य  सुनती।

धीरे धीरे यह चरित्रयुद्ध बनता जा रहा था। विवाद आगे नबढ़े, शाश्वती ने हार मान ली।

—ठीक ही कहा तुमने। मैंने नहीं कहा होगा।

—यह ऐसे नहीं।  अब मानना गलतही तो है।मान लेने से भी मन की झूठी ज़िद तो नहीं जाएगी।

—तो क्या करूँ।

—-बस कुछ नहीं।

और मौन व्याप्त हो गया था।अपने व्यक्तित्व पर इस दोष का आघात शाश्वतीसह नहीं पा रही थी।जाने कितने काँटे मन को छेदने लगे थे।रात किसी तरह बीती थी।सुबह का समय हमेशा सुबी के लिए आनंददायक होता था।पर आज मस्तिष्क में धुंथ ही धुंध व्याप्त था।

सुबी का मौन असह्य धा।उसके व्यवहारों के पीछे उसके अकेलेपन का दुख सदैव सामने आकर उसे, निंयंत्रित करता था।और यही स्थिति शाश्वती को असह्य होती थी।उसका अतीत कष्ट नदे ,ऐसा अनुकूल आचरण वह कैसे करे।

सामने हरा गलीचा सा दिख रहा था।यह घास की मोटी गद्देदार तहें थीं। चप्पलें धँस रही थीं।तारा ने उसके लड़खड़ाते मन को सहारा देने कीकोशिश में उसे थामलिया।शाश्वती का ध्यान भंग हो चुका था।सूर्य की चमकदार किरणें शरीर में उष्मा भरने लगी थीं।धुंध का नामोनिशान नहीं था।तेज कदमों से आवास जाने का मन हो रहा था।पर घास के नरम गद्देदार एहसास ऐसा करने से रोक रहे थे।साथ ही, घास में खिले फूलोंने अपनी ओरआकृष्ट करना आरम्भ किया।ये छोटे छोटे फूल निस्सीम हरियाली की उपज हैं।घास की निरी एकरसता मेंछोटे,छोटे हर्ष वषाद विन्दुओं के समान।उन्ही का सहारा लेएकरस हरियाली लहराती रही हो जैसे।घास के फूल।पर शाश्वती के जीवन की एकरसतामें इन छोटे छोटे फूलों का होना न होना कोई मायने नहीं रखता।हर्ष को पल्लवित होने नहीं दिया,पल्लवन का अवसर ही नहीं मिलाऔर विषाद को उसने कुचल देने की ही ठानी।वन प्रांतर की शुष्क काँटेदार झाड़ियों में उलझकर रास्ता ढूढ़नेमें ही समय व्यर्थ होता गया।स्वभाविकता की समतलता परमनोदशाओं की विविधता को कुर्बान होते देखती रही।

—शाश्वती –कहाँ खो गयी।

—हूँ  तो—

–नहीं भी हो।

—हाँ—

–चलो  घर आ गया।

यह तारा थी।बार बार उसे वर्तमान में लाने की चेष्टा किए जा रही थी।

–चलो सुबी इंतजार कर रही होगी।

–शायद।

वे दोनों घर पहुँच चुकी थीं।बरामदे परपहुँचते ही लगा ,बेसब्री का माहौल ही है।

—चाय मैं बनाती हूँ।

—नहीं तारा, मैं बनाऊँगी।

किचेन में जकर शाश्वती ने चाय बनायी।स्वयं ही ट्रे ले बरामदे में आ गयी।चाय वे वहाँ ही पिया करती थीं।

–सुबी  चाय ले लो।

लगा जैसे कर्तव्य पूरा हो गया।कर्तव्यों की अनदेखी शायद नहीं कर सकती वह।जीवन की व्यावहारिक निरंतरता भग्न नहो जाए,इस बात की चिन्ता हीउसका वह जीवन सूत्र था,जिसे पकड़ कर आज तक वह चलती आई।जिन्दगियाँ सदैव वह दो जीती रही।एकभावनाओं की और एक बाहर की।शायद इसीलिए सामंजस्य स्थापित करना कठिन हो रहा था।पर, किसी एक को भी छोड़पाना संभव नहीं था।

सुबी बाहर आई।–चेयर परबिना बैठे ही बागीचे के फूलों  पर ध्यान केन्द्रित करती खड़ी रही।तारा को देख मुस्कुरायी ।शाश्वती ने लक्ष्य किया ,आँखें लाल थीं उसकी।चेहरा थोड़ा फूला ,चिकना सा।–तो, नहीं सोई रात भर वह।

—चाय—

–हूँ—।सुबी आगे बढ़ गयी।फिरअचानक लौटकर कप उठायाऔर चाय पीने का उपक्रम करती रही। दो घूँटों में उसने कर्तव्य की इतिश्री की।

सन्नाटे ने पुनः घर बुनना आरम्भ कर दिया था शाश्वती यंत्रवत ही कार्यों मे जुटी रही।अपने टेबल पर बैठ इन्टरनेट पर कुछ ढूँढ़ने की को शिश करती रही।पर मन नहीं लगा।कुछ भूला भटका सा लग रहा था।

–शाश्वती –तुम्हारी मेड कुछ पूछ रही है।

–हाँ –क्या-

—मैम –सब्जियाँ क्या बनाऊँ—

—कुछ भी बना लो , सुबी की पसन्द की।

—अच्छा।

वह पुनः छोटे से लॉन में आ गयी।वहाँ अनन्त आकाश  उसका साथी था।पर धूप सुखद की सीमा पार कर रही थी।–थोड़ा सहने दो।सहना कुछ संदर्भों मे अच्छा होता है।सहकर अगर सबको सहज कर लिया जाए।पर कहना सं भव नहीं कि सहना व्यक्तित्व की टूट फूट है या टूट फूट की मरम्मत।किन्तु इसी सहने ने उसे आज की स्थितियों में पहुँचा दिया कि भावनाओं के उतार चढ़ाव को प्रदर्शित करने से वह बचती ही रही।

देखा सुबी गेट खोलकरकहीं बाहर जा रही थी ।नहीं– आज नहीं।  सामान्य नहीं हो सकेगा आज सबकुछ।

दिन ढल चुका था ।संध्या की आहट नेफिर एक बार शाश्वती के मन को रौंद दिया।क्या हो जाता है सुबी को –?वह अन्दर से बेचैन है पर पता नहीं क्यों—क्रोध की अतिशयता है—या क्रोध को नहीं सम्हाल पाने का पछतावा।

कल की बातें रह रहकर उसके संताप को गुणित करती जा रही थीं।

–क्या आप चाहती हैं—मैं मर जाऊँ?

शाश्वती चौंक तक नहीं सकी। चौंकने की सीमा कहीं पार हो चुकी थी।एक तिलमिलाहट जहाँभावनाओं की अभिव्यक्ति अवरुद्ध हो  जाती है, –भर सी गयी।वह आँखें फाड़े देखती रही थी।दोनों हाथों से सुबी के कन्धों को पकड़ने की कोशिश की थी।पर उसने हाथ झटक दिए थे।

—क्या चाहती हैं मेरी दुर्घटना हो जाए।?

शाश्वती सीधे अपने कमरे में जा बिस्तर पर पड़ रही। वह सोच नहीं पा रही थी कि आखिर ऐसी बातें सुबी के मस्तिष्क में आयीं तो क्यों।कहाँ और किस कोने मे ऐसी भावनाओं के छिपे होने की कल्पना वह कर लेती है।

घृणा—हाँ यह घृणा हो सकती है।

प्रतिद्वन्दिता—हाँ यह प्रतिद्वन्द्विता  हो सकती है।

परदोनों ही क्यों।क्या व्यक्ति की वयस्कता प्रौढ़ों तक की उपलब्धियों से प्रतिद्वन्द्विता को बाध्य कर सकती है।?यह सामान्य मानसिक स्थिति तो नहीं हो सकती।घृणा भी—मन की यह अंतिम टेढ़ी मनःस्थिति हो सकती है।

यह स्थिति शाश्वती को अब चौंकाती नहीं,–विषण्ण करती है।घोर विषण्णता—जिसमें डूबने परउबरने का कोई रास्ता नहीं मिलता।  सुब्बी अपने कमरे में ही बिस्तर पर सिर ढँके पड़ी रही थी—।

———-हाँ अब संध्या घिर आयी थी।अँधकार ने अपनी चिनगियाँ कृत्रिम प्रकाश से लड़ने को बिखरा दी थी।ऊँची नीची ढलानों पर उनका संघर्ष जारी था।शाश्वती पुनः घर के अन्दर जाकरएक अंतहीन अँधकार से लड़ने की तैयारियाँ कर रही थी।

—अब चुप से खाना खाओ और सो जाओ।–।

यह तारा थी।पर ऐसा करने के सिवा अन्य चारा भी तो नहीं था।कोई प्रयत्न, कोई भंगिमा, सुबी के अंतर को आश्वस्त नहीं कर सकता था।उद्वेलन भरी रात ने मस्तिष्क में घनघनाहट की ध्वनि भर दी थी।मध्यरात्रि में तारा ने एक बार छूने का प्रयत्न किया पर उसने मना कर दिया था ।स्पर्श– यानि रुदन– जिसपर उसने विजय प्राप्त करने की ठान रखी थी।सुबहकेआलोक ने खिड़कियों की फाँकों से कमरे मे कदम रखा था।सामने की दीवार पर रोशनी की तेज झलक मिल रही थी।उसने कपड़े सम्हाले,बिस्तर  से उतर शिथिल भाव से बाहर बरामदे में कदम रखे।

एक अप्रत्याशित स्थिति थी । सुबी चाय की ट्रे के साथ जैसे इंतजार कर रही हो।शाश्वती को देखते ही सिर झुकाकर कहा।

–लो –चाय लो। 

बिना कुछ कहे शाश्वती ने चाय की प्याली उठा ली।सुबी की आँखें निर्मल थीं।उसने एक बिस्किट शाश्वती के सामने बढ़ायी।हाथ काँप रहे थे।उठ खड़ी हुई।

–मैं S—S मैं शायद गलत थी शाश्वती।

—गलत मैं रही हूँगी  सुबी।

शाश्वती ठहर गयी।आँखें भर आयीं।अब सुबी के चेहरे पर हल्की लालिमा आ रही थी।लगा जैसे अब सब सामान्य होने जा रहा है।हाँ  –ज्वार आ कर जा चुका था।भाटे ने सब सामान्य कर दिया था।सुबी तारा की ओर देख मुस्कुरा रही थी।तारा शाश्वती की ओर देख मुस्कुरा उठी।

——————————————आशा सहाय

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