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जाना कहाँ है जब हर तीर्थ यहाँ है

कविता मल्होत्रा (संरक्षक, स्तंभकार – उत्कर्ष मेल)

मौसम ख़ुश्क,हर सू  धुँआ-धुँआ है

असामयिक विदाइयाँ,सदी का बयाँ है

क्रंदन मुखरित,आज ख़ामोश हर ज़ुबाँ है

मानव गंतव्य भ्रमित,नकारात्मकता जवाँ है

चंद धड़कनों की तलब में,प्यासा हर रोआँ है

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आज हर तरफ, हर दिल की अशाँति के मुखरित पन्नों पर ओम शाँति के हस्ताक्षर दर्ज़ हो रहे हैं, आख़िर कब रूकेगा ये सिलसिला? कब सर्वमंगल गान गुँजित होंगे? कब दिशाहीन मानव अपने जीवन की सर्वोत्तम दिशा को ढूँढ पाएगा ?

कितने ही युग बीत गए, हर युग अपने पीछे एक अलग इतिहास छोड़ गया, लेकिन एक बात सभी युगों में समान रही वो ये कि – “जाना कहाँ है, जब हर तीर्थ यहाँ है”।

जीवन की परिभाषा बहुत सहज और सरल है, लेकिन मानव जाति ने शिक्षा के नाम पर जीवन की सरलता को निगल कर भेदभावी समीकरणों में उलझा दिया है।

मानव कितना भी भटक ले, लेकिन आखिर तो उसकी प्राण उर्जा प्रकृति जन्य पँच तत्वों में ही विलीन होनी है, इस शाश्वत सत्य को तो कोई नहीं नकार सकता।

हाँ चुनौतियाँ दी जा सकतीं हैं केवल मानव के दैहिक स्वरूप को, जो सामाजिक भेदभाव का शिकार होकर, अपने पावन अँतर्मन को कलुषता के मकड़जाल से बचा नहीं पाता और एक मुट्ठी राख की औक़ात रखने वाला पानी का बुलबुला समूची मानव जाति पर अपनी हुकूमत क़ायम रखने के चक्कर में अपने जीवन का उद्देश्य ही भूल जाता है।

प्राकृतिक आपदा के कठिन  काल में भी कालाबाज़ारी से बाज़ नहीं आ रहा मानव।आख़िर क्या कारण है कि मानव ने मानवता से ही दामन छुड़ा लिया है।दूसरों को शमशान का रास्ता दिखाने वाले ये भूल गए हैं कि इसी राह पर एक दिन उन्हें भी जाना है।

लोगों की मेहनत की कमाई उनकी जान बचाने के काम नहीं आ रही तो कालाबाज़ारियों से कमाया काला धन किस काम आएगा।

मानव देह से जुड़ी तमाम संवेदनाएँ – प्रेम, मोह, माया और रिश्तों के बँधन मानव देह को तो बाँध सकते हैं लेकिन देह की प्राण ऊर्जा को आज तक कोई नहीं बाँध पाया।

कहाँ गए वो लोग, जिनके दैहिक स्वरूप के वियोग में हम लोग आज भी भटक रहे हैं, और उन बिछड़ी हुई आत्माओं द्वारा भेजी जाने वाली निस्वार्थता की तरँगों को पकड़ नहीं पा रहे हैं।

न जाने मानव जाति को ये किसका अभिशाप लग गया है कि समूचा विश्व आज निर्दयी काल के समक्ष एकदम अकेला असहाय और पीड़ित होकर अपनों का वियोग सहन करने को मजबूर हो गया है।

आखिर कोई तो क़सूर होगा ही न, जिसके कारण आज मानवता के ज़हन पर बिखरा अनँत निगाहों का गीलापन सूखता ही नहीं।

युग कोई भी हो, माँ कोई भी हो, उम्र कोई भी हो, सँतान के वियोग की वेदना तो सदा एक जैसी ही होती है, इसमें तो कोई दो राय हो ही नहीं सकती।

विडँबना तो इस बात की है कि मानव जाति अपनी मोह ममता का वास्ता देकर अपने संबंधों पर अपने ही स्वामित्व की चाहत रखते हुए हर ज़हन को अपने और बेगाने संबंधों में विभाजित करने की भूल कर बैठती है।

इतिहास गवाह है कि माँ गांधारी ने अपनी सँतान को संधि के लिए चेताया था – अपने ही अँग काटकर अपने ही अँश पर राज करने वाले कभी सम्राट नहीं कहलाते, लेकिन अगर सँतान एकता के सूत्र में बंधने की शिक्षा ग्रहण करती तो महाभारत घटित ही न होता।

अपनी सल्तनत का मोह रहा हो, अपनी सँतान का या अपनी अभिलाषा का, कारण जो भी रहा हो, निवारण तो केवल इच्छाशक्ति से ही सँभव था।

मानव जाति ये कैसे भूल गई कि माँ प्रकृति की पदवी सबसे बड़ी है, जो सँपूर्ण सृष्टि को निस्वार्थ प्रेम के बँधन में बाँधने का संदेश देती है।

हमारे स्वजनों का दैहिक स्वरूप भले ही पल-पल हमसे विलग हो रहा है लेकिन प्राण ऊर्जा के रूप में हर कोई सृष्टि के कण कण में विद्यमान है।

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कोई कहीं नहीं गया, न ही हम लोग कहीं जाएँगे

प्रकृति के अँश हैं हम सब, उसी में जा मिल जाएँगे

हर पुष्प को प्रेम पराग बाँटें मधुबन हर सू खिल जाएँगे

कपटी विषाणु ख़त्म कर दें तभी महामारियाँ भगा पाएँगे

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