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जीत उसकी …हार किसकी…. ?

मनमोहन शर्मा ‘शरण’

जब भारत में कोरोना महामारी का पहला मरीज संक्रमित पाया गया तब हमने चैकसी बरतनी शुरू कर दी थी, ऐसा हमें बताया गया । धीरे धीरे संख्या 50 / 100 तक पहुँची तब तक हम ‘जनता कर्फ्यू’ तथा लॉकडाउन की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुके थे । जब पहले लॉकडाउन की घोषणा की गई तब देशवासियों को ऐसा विश्वास दिलाया गया मानो 21 दिन में यह समस्या भारत में नियन्त्र्ण में आ जाएगी अथवा समाप्त हो जाएगी ।  लेकिन एक और लॉकडाउन आता और निराशा के कितने और दिन बीतेंगे यह घोषणा कर जाता ।  एक और लॉकडाउन करते–करते अब हम पाँचवें लॉकडाउन में प्रवेश कर चुके हैं और कोरोना संक्रमितों की संख्या 2 लाख के आस–पास पहुंच चुकी है । 

            जब सैंकड़ों–हजारों में थे तब हम पीठ थपथपाते रहे कि अन्य देशों की तुलना में हमारा देश बेहतर स्थिति में है…….लेकिन अब हमारी स्थिति (संख्या की यदि बात करें) तो इस महामारी का जन्मदाता कहें तो गलत नहीं होगा, चाइना से भी बुरी हो गई है ।  अब हम दिलासा ही दे सकते हैं (शायद सच भी हो)  कि यदि यह लाकडाउन सही समय पर और लगातार न किये जाते तो स्थिति भयंकर हो सकती थी, अकल्पनीय ।

            अब हम  समय और स्थिति से लड़ तो नहीं सकते, समस्या से मुँह छिपाकर भाग भी नहीं सकते–––––फिर हल क्या है ?  ––––डटकर सामना करें!  यही उपाय है और अपना तथा अपनों का ख्याल रखें ।  खान–पान, जीवन शैली में आए इस बदलाव को अपनाकर समस्या को बढ़ने न दें, इसमें हम मदद कर सकते हैं ।

            हर लॉकडाउन आता एक आस के साथ कि इतने दिन की बात है, सब ठीक हो जाएगा, लेकिन जब सब ठीक होने की, खुल जाने की आवाज–आदेश–संदेश सुनने को कान बेताब हो उठते थे तभी बड़े सहज भाव से घोषणा हो जाती और फिर स्थिति सामान्य होने के लिए कितने दिन और इंतजार करना पड़ेगा, यह घोषणा हो जाती ।  सरकारी तन्त्र् की ओर से यह घोषणा मात्र् होती किन्तु देश की जनता पर दुखों का मानो पहाड़ टूट पड़ता  ।  इस पहाड़ से कौन कितना आहत होता, यह व्यक्ति–परिवार अथवा संस्था की आर्थिक स्थिति कितनी सुदृढ़ है, इस पर निर्भर करता ।  ऐसे में घोषणाएं भी की जाती रहीं किन्तु लाभ किसे मिल रहा है अथवा भविष्य में मिलेगा ….. ।  शायद ये घोषणाएं पर्याप्त नहीं है वरना असन्तोष का वातावरण इस कदर न पनपता कि लाखों लोग, न कोई ईपास, न कोई आदेश, बस अपना स्वयं का निर्णय और सड़कों पर आ गए ।  हम पीठ थपथपा रहे हैं जनता कोसती–कोसों दूर चल पड़ी, कोई पैदल कोई अपने वाहन पर चले जा रहा है ।  भूख–प्यास व रहने की भी चिंता त्यागकर, बस चलते जाना है, यही नारा यही धुन  है उनकी ।  राजनीति तथा स्थिति बेबस होती देख रेलगाड़ी (श्रमिक स्पेशल) की व्यवस्था की गई या करनी पड़ी । 

            इन सब परेशानियों के बीच जो कुछ अनोखा कर जाता है वह आकर्षण का केन्द्र बन ही जाता है ।  आज एक अभिनेता सोनू सूद जिसकी प्रवासी मजदूरों को दी जाने वाली  असाधारण सेवाओं के कारण  सुर्खियों में आ गया और यह सवाल जनता के मन में उपजने लगे, ऐसी सेवाएं जनता का सेवक बनकर सत्ता हासिल करने वाले नेतागण क्यों नहीं करना चाहते ।  

            संघर्ष तथा हौसलों की उड़ान का पर्याय बन चुकी ज्योति का उल्लेख न सिर्फ भारतीय मीडिया में अपितु उसकी सहनशीलता, साहस ने डोनाल्ड ट्रंप की बेटी का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया ।  ज्योति ने गुरुग्राम (हरियाणा) से दरभंगा (बिहार) तक साईकिल से सफर तय किया ।  विशेष यह कि 15 वर्ष की नन्हीं बालिका ने अपने पिता के लिए वह कर दिखाया जो शायद पुत्र भी करने में संकोच करता ।  अपने पिता को साइकिल पर पीछे बिठाकर 1500 (लगभग) किलोमीटर की यात्र तय की वो भी मात्र् 9–10 दिनों में ।      जब वह पहुंच गई अर्थात जीत गई तो जयजयकार होने लगी । क्या मीडिया, क्या नेता, सरकारी तन्त्र् भी मेहरबान नजर आने लगा ।

            नन्ही बालिका की जीत हमने देखी, हमने मानी परन्तु इसके पीछे हार किसकी है, यह विचारणीय है ।  क्या यह सिस्टम की हार नहीं है कि हजारों–लाखों लोग अपने भविष्य को लेकर आशंकित हो गए और अपने गांव/घर की ओर चल दिए । 70–80 लोग तो रास्ते में ही दुर्घटनाग्रस्त होकर मर गए ।

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