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महाराष्ट्र में सियासी नौटंकी का पटाक्षेप

राजनीति के द्वंद्व मे फँसी शिवसेना को मंगलवार को जब सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली तब जाकर उद्धव ने राहत की सांस ली । संजय राउत ने तो शरद पवार को राजनीति का चाणक्य तक कह डाला  । वैसे बता दे कि बीते  शनिवार २३ तारीख को सुबह अचानक तब झटका लगा जब सुबह सवेरे ही राज्यपाल कोश्यारी ने फड़नविस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। महाराष्ट्र मे आजकल बिना पेंदी के लोटा हुई एनसीपी बिल्कुल तुरुप का इक्का हो गयी थी और अंत में कांग्रेस के साथ मिलकर शिवसेना का मुख्यमंत्री हो इसपर सहमति भी बन गई । धृतराष्ट्र बने ऊधव ठाकरे, खुद  को सी ऍम बनाने के लिए हर विचारधारा को मानने को तैयार बैठे है ।  यकीन नही होता की जिस बाला साहेब ठाकरे ने मातोश्री से राजनीति की शुरुआत की और कभी हिन्दुत्व के आगे समझौता नही किया वही आज सत्ता के लालच मे अहमद पटेल के घर तक जाने से नही हिचक रहे । अब यह समझिए कि भाजपा उनके लिए कितना बड़ा सरदर्र बन चुकी थी । हालात ये थे कि शतरंज में आपके प्यादे लगातार पिट रहे हों और आपका राजा घिर चुका हो। वजीर देकर भी शह, घेराव का खेल चल रहा है। किसी भी वक्त मात हो सकती हो तो एक अच्छा खिलाड़ी हार को टालते हुए गेम को खींचता है। चालें रिपीट करता और किसी तरह से शतरंज के खेल में बना रहकर जीत के करीब पहुंचे अपने प्रतिद्वंदी को मानसिक रूप से थकाता और कई बार उत्साहित संभावित विजयी खिलाड़ी के धैर्य को भी प्रभावित करता है। ठीक ऐसा ही  भाजपा शिवसेना के साथ कर रही थी किन्तु कम विधायक होने के कारण भाजपा को बैकफुट पर जाना पड़ा  । चूंकि शिवसेना कोई राष्ट्रीय पार्टी है नहीं, न ही टीएमसी, बसपा, सपा, डीएमके, एआईडीएमके, जेडीयू, जेडीएस, टीडीपी, टीआरएस के समान राज्य स्तर पर इतनी सक्षम। पार्टी को जितनी भी ऱाष्ट्रीय सुर्खियां मिली हैं, वह सिर्फ बाल ठाकरे के मिजाज और अंदाज का नतीजा है।

शिवसेना के इतिहास में देखें तो भाजपा के साथ आने के बाद से ही पार्टी का चुनावी प्रदर्शन लगातार प्रभावित हुआ है। 1991 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में अपना 1 सदस्य जिताने वाली शिवसेना दूसरे राज्य में लाख हाथ पैर पटकई के बाद दूसरा एक भी विधायक नहीं चुनवा पाई। चूंकि शिवसेना के कोर में महाराष्ट्र और वहां का स्थानीयवाद रहा है। इस स्थानीयवाद के मूल में बाहरियों का उग्र विरोध है। ऐसे में शिवसेना के लिए दूसरे राज्य में जाकर प्रदर्शन कठिन है। इसके बीच यह आश्चर्य है कि जिन उत्तर भारतीयों के विरोध पर शिवसेना की बुनियाद है वह बिहार में गैर-मराठी राज्यों में सर्वाधिक 2 लाख के पार वोट हासिल करती है। जबकि मराठा प्रभावित गोवा में पूरी ताकत के बावजूद 6 हजार वोट का बेस्ट स्कोर ही हासिल कर पाती है। ऐसे में यह समझना बहुत जरूरी है कि शिवसेना 2014, 2018 और 2019 में भाजपा के साथ तकरार के मोड पे क्यों है? दरअसल, पूरे बीते दौर को देखें तो भाजपा का साथ उसे महाराष्ट्र में कोस्टल और पश्चिमी महाराष्ट्र में बुरी तरह से बांध रहा है। 2014 के नतीजों ने तो शिवसेना को भयानक करंट दे दिया था, जब भाजपा ने अकेले लड़कर शिवसेना से दोगुना सीटें हासिल कर ली। इसके ठीक बाद बीएमसी में भी भाजपा भारी पड़ी। हालांकि फिर दोनों गठबंधन में रहेे। अब लेकिन 2019 में शिवसेना ने कमर कस ली कि भाजपा पर दबाव बनाएंगे।

शिवसेना चाहती है कि वह भी हिंदू कोर वोट वाली पार्टी है और भाजपा भी। शिवसेना के नए कर्णधार उद्धव शांत चित्त वाले व्यक्ति हैं। वे मानते हैं हिंदू कोर वैल्यू के कारण शिवसेना महाराष्ट्र के बाहर भाजपा के रहते सर्वाइव कर ही नहीं सकती। अब महाराष्ट्र में भी भाजपा का हिंदू एजेंडा चल निकला है तो शिवसेना नंबर-2 की हिंदूवादी पार्टी बनकर रह गई। ऐसे में शिवसेना के लिए  महाराष्ट्र में सरकार चलाना चुनौती होगी । वैसे पूरी नौटंकी में एक यह कारण रहा कि शिवसेना ने 2019 विधानसभा से पहले गठबंधन करके भाजपा को रोकने की कोशिश की। उद्धव इसमें कामयाब भी रहे। करीब 53 फीसदी सीटें हारकर भी उन्होंने भाजपा के साथ जाने से इनकार कर दिया। उद्धव का चाणक्य दिमाग यह चाहता है कि भले ही महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगे, लेकिन महाराष्ट्र भाजपा के खाते में नहीं जाना चाहिए। उद्धव की कोशिश है कि महाराष्ट्र में इफ ऑर बट, लेकिन किंग मेकर शिवसेना ही है। ऐसा संदेश देश में और प्रदेश में जाना चाहिए। किन्तु अब एन सी पी फ्रंटफुट पर है । इस कारण उद्धव ने भाजपा से नाता तोड़ना बेहतर समझा। हालांकि उद्धव इसमें आधे कामयाब हो सके। क्योंकि उनकी योजना थी कि सत्ता, सरकार से महरूम कांग्रेस, राकांपा कर्नाटक की तरह बिना ज्यादा नेगोशिएट किए शिवसेना को इस आधार पर साथ दे देंगी कि भाजपा महाराष्ट्र से बाहर हो रही है।

 लेकिन राजनीति के चतुर सुजान शरद पवार ने सोनिया को ढाल बनाकर गेम पलट दिया। इससे शरद पवार जहां जन-आरोप से बच निकले तो वहीं कांग्रेस को एक फायदा ये हुआ कि उसका “फूफाई” सम्मान बरकरार रहा। जहां मनोव्वल के बिना पार्टी ने समर्थन नहीं दिया, बल्कि कई बार गिना और चुना। चूंकि लोग ये धारणा बनाकर बैठे हैं कि कांग्रेस समर्थन क्यों न करेगी? जब वह कर्नाटक में भाजपा को रोकने के लिए 37 सीट वालों को किंग बना सकती है तो यहां तो बहुमत से महज 88 सीटें ही कम वाली पार्टी है।भाजपा इस पूरे घटनाक्रम में मौन है। क्योंकि इसीमें उसकी भलाई है। वह विकटिम कार्ड खेलना चाहेगी। चूंकि चुनाव अगले 3 बरस तो नहीं हो सकते। राष्ट्रपति शासन जारी रहेगा। इस बीच एनसीपी में  संभावना बनी और शिवसेना को छोड़ भाजपा सरकार बना ले गई  किन्तु मंगलवार २६ तारीख को मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस को इस्तीफा भी देना पड़ा । अब भाजपा विपक्ष में बैठेगी और अगले चुनाव में शिवसेना की धोखेबाजी की शिकार मासूम पार्टी का विकटिम कार्ड लेकर मैदान में होगी। उद्धव चारों तरफ से घिरे हैं। प्यादे बचे नहीं, हाथी, ऊंट पिट रहे हैं, वजीर और राजा उद्धव स्वयं हैं। पिक्चर अभी बाकी है । ऊंट किस करवट बैठेगा ये देखना शेष है अभी क्योंकि मुख्यमंत्री एन सी पी शिवसेना और कांग्रेस के इस खिचड़ी का कोई एक बनेगा किन्तु जिस हिंदूवादी छवि से शिवसेना चुनाव जीतती आयी अब वो एक खिचड़ी बन कर गल जाएगी और उत्तर भारतीय वोटो का नुक़सान झेलेगी   । 

———-पंकज कुमार मिश्रा जौनपुरी 8808113709

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