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शिव समान मोहि प्रिय नही दूजा !

श्रावण माह कैलाशपति भगवान नीलकंठ के कृपा का माह माना जाता है । सड़को पर रंग बिरंगे कावड़ो से सजे कावड़ियों की यात्रा अनायास ही भक्ति भाव से ओत प्रोत कर देती है । आजकल सड़को पर नमाज और हनुमान चालीसा का मुद्दा जोर पकड़ रहा । भक्ति और श्रद्धा केवल सहज शुद्ध हृदय से किया जाता हौ और भक्तिफल काफी हद तक आपके संचेतना पर निर्भर करता है ।आज कल सोशल मीडिया पर कावड़ यात्रा का खूब मजाक उड़ाया जा रहा कभी कभी एकाध पोस्ट पर  घूमती शिव जी की चिलम पीती तरह तरह की फोटो, गाने और  संबंधित आलेख मुझे ये सोचने पर विवश कर रहे है कि क्या हम धीेरे धीरे परमयोगी , साधना के प्रतीक, महादेव शिव शंकर को सिर्फ गांजा और चरस फूकने के प्रतीक बना रहे है ? क्या योग शास्त्र के जनक, प्रथम  योगगुरु, जिन्हें ब्रह्मांड का कर्ता धरता माना गया है, जो कण कण में समाया हुआ है , जो निराकार होके भी साकार है , जो निर्गुण होके भी सगुण है , जिनके आंखे मूंदते ही यह ब्रह्मांड अंधकारमय हो जाता है , क्या ऐसे शिव को किसी भी तरह के नशे की जरूरत है ? क्या जिन्होंने कभी भी शिव को पुराणों या शास्त्रों में पढ़ा है, उन्होंने कभी उनके गाँजा चरस जैसे नशे के आदी होने का वर्णन पढ़ा है, जवाब होगा, नहीं। पुरानी परंपरा के तहत शिव को भांग और धतूरा चढ़ाया जाता रहा है, जो अब धीरे धीरे गांजे और चरस में तब्दील हो रहा है, क्युकी कुछ लोग अपने नशे की आदत को शिव भक्ति की आड़ में छुपाने का मौका देखते है , जबकि शिव जी को भांग और धतुरा चढ़ाना प्राचीन भारतीय चिकित्सा विज्ञान की उत्कृष्टता का बेजोड़ उदाहरण है। धतूरा औेर भांग चढ़ाना के पीछे के कारण को आइए वैज्ञानिक तरीके से जानने की कोशिश करते है।‌ये सब जानते है,जब समुद्र मंथन हुआ तब अमृत से पहले हलाहल विष निकला, जिसकी जलन और तीव्रता किसी को अपने समीप नहीं आने दे रही थी, तब आदि योगी शिव ने उसे अपने कंठ में स्थान किया, और कपूरगौरम् (कपूर के समान सफेद रंग वाले) शिव करुणावतारम् (करुणा और दया के अवतार ) नील कंठ कहलाए ।मान्यता है कि इतना तीव्र विष पीने के बाद महादेव को उसके असर से बचाने के लिए देवताओं ने उनको भांग, धतूरा और बेल चढ़ाया। बेल तो खैर ठंडक का प्रतीक है ही, आश्चर्य जनक तौर से भांग ( कैनाबिस) और धतूरा ( एट्रोपिन और स्कोपोलामिन) न  केवल प्राचीन भारतीय और चीनी चिकित्सा पद्धतियों में विष निरोध में काम आती है, अपितु आधुनिक एलोपैथिक पद्धिती में भी अपना विशेष स्थान रखती है. भांग (कैनाबिस) का परिष्कृत रूप न केवल कैंसर जैसे मरीजो के असीम दर्द की अनिवार्य दवाई है, साथ ही कीमोथेरेपी जैसे कारणों से होने वाले उल्टी की भी असरदार दवाई है। साथ ही सही मात्रा और सही जरूरत में उपयोग होने पर इसके और भी फायदे है। इसी प्रकार धतुरा , जिसका एक तत्व ‘ स्कोपोलामिन ‘ पेट के मरोड़ , दर्द और विभिन्न प्रकार के वमन (उल्टी) रोगों के लिए आज भी प्रथम दवा है और दूसरा प्रमुख तत्व ‘ एट्रोपिन ‘  आज भी कीटनाशक जैसे अत्यंत खतरनाक विष की ‘ एकमात्र ‘ रामबाण और जीवन रक्षक दवा है । अब वापस चलिए पुरानी कहानियों में, शिव जी ने हलाहल विष पिया और उनको भांग और धतूरा खिलाया गया ताकि विष का प्रभाव कम हो जाए, कितना बड़ा वैज्ञानिक तथ्य कहानियों के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी कहा जा रहा है, पर हम उस विज्ञान का सम्मान करने के बजाय एक ध्यान के प्रतीक को नशेड़ी साबित करने पर तुले है। भारतीय संस्कृति की लगभग हर पद्धिती में कोई न कोई वैज्ञानिक कारण छुपा है, जिनमें से कई अपने पुरातन स्वरूप से भटकते हुए इसी प्रकार कुप्रथा में बदल गए है, समय है उनको पहचानने का और हमारे पूर्वज जो ज्ञान हमसे बांटना चाहते थे, उसको समझने और सहेजने का । बाकी शिव हमेशा ही  ‘ध्यान ‘ का प्रतीक रहे है, उन्हें ‘ व्यवधान ‘ के कारक के रूप में न देखे और न ही दिखाए । हम अपने देवी देवताओ और धर्म को बस एक दूसरे पर थोपने की कोशीश मे लगे हुए है , हमे जरूरत है वर्तमान समय मे शिवत्व के सार को समझ कर खुद को एकाग्रचित बनाये रखते हुए अपना ध्यान शिव के चरणों मे लगाकर शिवमय हो जाय । आप सभी को इस आह्वान के साथ शिव प्रिय श्रावण माह की शुभकामनायें कि आप सब शिवभक्तो को केवल उस नजर से देखें जिसके लिए भगवान भोलेनाथ नीलकंठ कहलाये अर्थात प्रत्येक भाव मे बस जनकल्याण । नमो नमामि शंकरा । जय बाबा विश्वनाथ । —— पंकज कुमार मिश्रा जौनपुरी 8808113709

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