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सत्ता और नैतिकता

नैतिकता तो पहले ही राजनीति में गायब होती जा रही थी,अब सत्तालोलुपता में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचार में मर्यादा की सभी
सीमाएं लांघ दी गईं।वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर का चुनावी सभा में
तेज़ आवाज़ में ललकारना-“देश के गद्दारों को,गोली मारो सालों को” कितना गलत था।प्रवेश वर्मा ने
सभी मुस्लिमों को ही एक तरह से शाहीन बाग का हवाला दे कर रेपिस्ट कह दिया, केजरीवाल को आतंकवादी बता दिया। कपिल मिश्रा ने चुनाव को भारत पाकिस्तान का युद्ध बता दिया। अमित शाह का अहंकार से भरा
बड़बोलापन चुभन के साथ विद्रूपता ही पैदा करता है और कुछ नहीं।
जो बी जे पी नैतिकता की
दुहाई देती थकती नहीं थीं, उन्हीं के ही नेताओं पर बार बार प्रतिबंध लगा। योगी जी ने प्रचार में हिन्दू मुस्लिम को अलग अलग खेमे में बांट कर मर्यादा तोड़ी,संजय सिंह ने बी जे पी पर हिंसा का आरोप लगाया तो
चुनाव आयोग ने नोटिस
भेजा। हरियाणा के सी एम ने केजरीवाल को बन्दर,मदारी कह दिया,
राहुल गांधी बेरोजगारी को ले कर बोल उठे,यदि
ऐसा रहा तो छह महीने बाद युवा मोदी को डंडे मारेंगे। प्रधानमंत्री मोदी
जी स्वयं भी कई बार कटाक्ष करते हुए अपने पद की सारी सीमाएं ही पार कर जाते हैं।

दूरदर्शन के विभिन्न
चैनलों पर बहस के स्तर
पर शर्मिंदगी ही होती है व लोकतंत्र के मूल्यों के हनन पर हैरानी।लगता है
जैसे राजनीति के प्रांगण में तो सरस्वती पूरी तरह ही लुप्त हो गई है।
राजनीति में नैतिकता हनन का नँगा नाच तो कई बार देखने को मिला
पर महाराष्ट्र की राजनीति ने उसका अंत कर दिया। भाजपा अपने को’पार्टी विद ए डिफरेंस’कहती थी,अब यह नकाब भी उसने उतार दिया।देखा जाये तो
सब पार्टियां निर्वस्त्र हो कर अवसरवादी साबित हो गईं, यहाँ अब कोई भी
दूध का धुला नहीं।अमित शाह अब चोट खाये अजगर की तरह अपना दांव चलने से बाज़ नहीं आएंगे।कर्नाटक वाला खेल दिखा कर ही मानेंगे।
अभी तो शरद पवार ने चाणक्य के चाचा वाला रोल कर दिया।

तारों की छांव में राष्ट्रपति शासन हटा,सूर्योदय होते ही शपथग्रहण भाजपा का हो गया,कुछ घंटे पहले ही तीन दलों की
सहमति की खबर थी। क्या ही अच्छा होता,हड़बड़ी में इस तरह की गलती कर तमाशा बनने की जगह भाजपा इनको सरकार बनाने देती व कुछ समय इंतज़ार कर लेती। राज्यपालों की भूमिका सरकारी पिट्ठू जैसी हो गई है।भाजपा
सत्ता की भूखी हो गई है,
येन केन प्रकारेण पूरे भारत में छा जाना चाहती है।जिस जे जे पी को भाजपा ज़मानत ज़ब्त पार्टी कहती थी,उसी के साथ सरकार बना ली।पिचहतर पार का नारा चालीस पर थम गया। कई कद्दावर मंत्री हार गए
पी डी पी के साथ भाजपा का कश्मीर में बेमेल गठबंधन चला नहीं ।भाजपा के खिलाफ
राजद के साथ चुनाव लड़
फिर उसको ही धोखा दे कर नीतीश ने भाजपा से मिल कर सरकार बना ली।

सत्ता के लिय22दलों की वाजपेयी सरकार में राम
मंदिर,धारा 370,समान
नागरिक सहिंता के मुद्दों को तिलांजलि दे दी गई थी।अब महाराष्ट्र में तीन दल कॉमन प्रोग्राम पर
एकजुट हो गये तो क्या गलत हो गया।बाल ठाकरे की शिव सेना के उत्थान से ही भाजपा ने पैर पसारे थे,बड़े भाई की भूमिका में शिव सेना थी,
आज भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई।
निश्चय ही गठबंधन के समय फिफ्टी फिफ्टी की
बात हुई होगी,पर जबानी बात पर विश्वास करना तो
अब राजनीति का धर्म ही नहीं रहा।छोटे भाई के रूप में ढाई वर्ष के लिये
शिवसेना का मुख्यमंत्री बन जाता तो क्या जुल्म हो जाता।क्या भाजपा ने
उत्तरप्रदेश में मायावती के
साथ ढाई-ढाई वर्ष के मुख्यमंत्री बनने का सौदा नहीँ किया था, वो तो बेमेल ही था।

अब तो भाजपा भी सब दलों की
तरह ही हो गई है।कुछ बात तो थी,अन्यथा शिव सेना 30 वर्ष की दोस्ती नहीं तोड़ती।यह भाजपा के अहंकार की पराकाष्ठा ही है।महंगाई, बेरोजगारी
छंटनी के नाम पर त्राहि त्राहि मची है,प्रचंड बहुमत के
मद में डूबी भाजपा सरकार को परवाह ही नहीं है। वित्तमंत्री जी कहती हैं, मंदी है ही
नहीं।अब जनता के हाथ में सहने के सिवा और क्या है?अपनी कमियों की भी मार्किटिंग भाजपा
खूबियों की तरह कर जनता को भृमित करने में
सिद्धहस्त हो गई है।।अपनी अपनी डफली, अपना अपना राग बजाती
विपक्षी पार्टियां यदि एकजुट न हुईं तो जनता के सामने विकल्प ही खत्म हो जाएंगे। अच्छे सुदृढ़ प्रजातन्त्र में विपक्ष
भी अच्छा,सुदृढ़ होना चाहिए,अन्यथा निरंकुशता को ही प्रोत्साहन मिलता है, मिलता रहेगा,ऐसे में
भृष्टाचार स्वंयमेव ही बढेगा।

घोर भ्र्ष्टाचार के आरोप में घिरे कितने ही
सांसद, विधायक भाजपा
रूपी गंगा में आते ही पवित्र व निर्दोष दिखाई देते हैं।चुनाव के समय जिसको जेल भेजने की
हुंकार भरी हो,उसी के साथ सरकार बना लेते हैं।भ्र्ष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस
की बात करने वाले बड़े बड़े भृष्टाचारियों के साथ
हाथ मिला लेते हैं।

महात्मा गांधी तो बस एक पुतला है जिनके आदर्श के नाम पर चुनाव जीतते हैं,बाद में
उन्हीं के आदर्शों की धज्जियां उड़ा देते हैं।होटल-होटल का खेल शुरू हो जाता है। लोकतंत्र की जीत या हत्या अपनी सुविधानुसार घड़े शब्द बन जाते हैं।
मतदाता बेचारा सब कुछ देखते हुए भी सब कुछ सहने को मजबूर है। नैतिकता का नकाब सब
पार्टियों ने उतार कर कहीं
दूर फैंक दिया है।अब राजनीति में सत्ता का मोह
स्वार्थ,पद का लालच,मौका परस्ती जैसे
गुणों के द्वारा सत्ता प्राप्ति
ही अंतिम मंजिल है।लक्ष्य
को हासिल करने में अब
विचारधारा, छवि
नैतिकता का कोई मूल्य नहीं।राजनीतिक दलों की
निर्लज्जता, नैतिकता के हनन से आम जनता तो
शर्मिंदगी महसूस करने के
अलावा और करे भी क्या?आप भी कसम ले लीजिये,अब राजनीति में
नैतिकता की आशा सभी
दलों की सत्ता लोलुपता को देखते हुए कभी भी
नहीं करेंगे,क्योंकि अब
राजनीति नित नये ढंग की परिभाषा गढ़ रही है।
-राजकुमार अरोड़ा’गाइड’
कवि,लेखक व साहित्यकार
सेक्टर 2,बहादुरगढ़(हरियाणा)
मो०9034365672

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