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फिल्मी बुतों के विसर्जन का अवसर

यशपाल सिंह यश

आजकल बॉलीवुड चर्चा में है। बॉलीवुड हमेशा ही चर्चा में रहा है । जब से बच्चा जवान होना शुरू होता है फिल्मी सितारे उसके स्वप्नलोक का हिस्सा बन जाते हैं । उन्हें देखना अच्छा लगता है, उन्हें सुनना अच्छा लगता है, उनकी बातें करना अच्छा लगता है। विज्ञापनदाता इस बात को खूब पहचानते हैं और इसको जम कर भुनाते भी हैं । हमें लाख पता हो कि वो यथार्थ के नहीं बस रुपहले पर्दे के नायक हैं, मगर दिल है कि मानता नहीं।

नायकों को हम महानायक बना देते हैं और फिर उनसे उम्मीद करने लगते हैं कि वो यथार्थ में महानायक सा सामर्थ्य और साहस दिखाएं । कुछ ऐसा ही आजकल हो रहा है। बॉलीवुड के सितारों का धुंधला सच सामने आ रहा है तो लोग नायकों और महानायकों की चुप्पी पर सवाल खड़े कर रहे हैं। अजीब बात है। हम खुद ही किसी को महानायक का दर्जा दें, खुद ही उम्मीद लगाएं, खुद ही निराश हों और गाली बेचारे महानायकों को पड़े। भला उनका क्या दोष। उन्होंने तो खुद कोई ऐसी दावेदारी नहीं की । हां कभी कभाक कोई फिल्मी सितारा हमारी मूर्खतापूर्ण अवधारणाओं का लाभ उठाकर संसद तक पहुंच जाता है और मंत्री, मुख्यमंत्री तक बन जाता है। लेकिन इसमें उस बेचारे का क्या दोष। वोट देकर चुनते तो हम ही हैं । ये हमारा ही तो फैसला है कि कोई बच्चन एक बहुगुणा को हरा देता है। अब देखिए ना हम सब जानते हैं कि वो स्क्रिप्ट के बनाए हुए बादशाह हैं, जिनकी महारथ इतनी भर है कि वो लिखे लिखाए डायलॉग को शानदार तरीके से बोल दें। लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि वो महत्वपूर्ण सामयिक मुद्दों पर राजनेताओं की तरह बयान दें। कुछ इसी तरह के बयान की उम्मीद आजकल हो रही है। लोग विस्मित हैं कि उनका महानायक खामोश क्यों है। सोशल मीडिया पर फैन जमकर भड़ास निकाल रहे हैं। उन्हें अफसोस है कि जिसको वो पूजते थे वो नकली भगवान निकला। वैसे तो ऐसी शिकायत भक्त असली भगवान से भी करते रहते हैं। बालासाहेब ठाकरे की पत्नी का देहांत हुआ तो उन्होंने कह दिया कि अब वो भगवान कि पूजा नहीं करेंगे। अब भला दोनों का आपस में क्या संबंध।

कल ही टीवी पर एक बहस में कोई सज्जन कह रहे थे कि लोग फिल्मी सितारों को अपना आदर्श मानते हैं इसलिए उन्हें अच्छा व्यवहार करना चाहिए। अब बताइए मैटिनी आइडल को अगर हम अपना आइडियल मान लें तो भला गलती किसकी। अरे भैया आइडल का मतलब होता है बुत, और बुत हम बनाते हैं। भले ही वो महानायकी बुत हो। बॉलीवुड में महानायक कहे जाने वाले अभिनेता तो खुद अपनी फिल्म, ‘सरकार’ के रिलीज होने से पहले बालासाहेब के दरबार में हाजिर होने को मजबूर हुए थे । और हों भी क्यों ना। अपार धन और समय खर्च होता है फिल्म बनाने में। सरकार का बनाया सेंसर बोर्ड उसे पास करता है और फिर सरकारें ही उसे बैन कर देती हैं, या कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए किसी जाति, समुदाय के गौरव को बचाने वाले सिपहसालार सड़कों पर उतर कर सिनेमागृहों में तोड़फोड़ मचाते हैं और कानून व्यवस्था लाचार खड़ी देखती रहती है। ऐसी स्थिति में हमारा बनाया नायक या महानायक किसी बड़ी घटना पर बयान देना भी चाहे तो दे कैसे? मुंह खोले और फंसे? यहां किस बात से कौन नाराज़ हो जाए कोई भरोसा है। जहां कानून का सम्मान नहीं वहां चुप रहने में ही समझदारी है। अब आप कहेंगे कि फिर आप क्यों बोल रहे हैं तो भैय्या मैं कोई महानायक थोड़े ही हूं। आम जनता का बोलने का अधिकार अभी सुरक्षित है। और उसी अधिकार का उपयोग करते हुए कहता हूं कि बुत बना लिए, पूज लिए, सब ठीक। मगर अब तो सच्चाई देख ली। अभिनय की कद्र करो मगर अभिनेता को भगवान मत बनाओ। मेरी मानो यह इन बुतों के विसर्जन का सुनहरा अवसर है।

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