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गीत और ग़ज़ल को ऑक्सीजन देने वाला वट वृक्ष चला गया

सज्जनता, विनम्रता, सरलता और बड़प्पन सिखाना है तो डॉ. कुंअर बेचैन से सीखें। इतना बड़ा मुकाम हासिल करने के बाद भी कोई अहम नहीं पला। गीत के शलाका पुरुष और ग़ज़ल के उस्ताद डॉ. कुंअर बेचैन अति विशिष्ट श्रेणी में आते थे। वे अत्यंत विद्वान और सतत् विचारशील थे। मैंने, उनके कवि सम्मेलनों के उनके अंशों को टीवी, मोबाईल, यूट्यूब आदि पर सुना भर था। पहली मुलाकात दिल्ली में कोयला मंत्रालय की हिंदी सलहाकार समिति की बैठक में हुई थी। वे इसके सदस्य थे । हिंदी के प्रति उनका अनुराग देखते ही बनता था, हिंदी और हिंदी अधिकारियों की उन्नति के लिए वे मुखरता से अपनी बात रखते थे। उनके भीतर की बेचैनी उनकी आँखों में झलकती थी, बातों में स्पष्ट दिखाई देती थी। मुलाकात के दौरान जब मैंने उन्हें बताया कि सर मैं भी थोड़ा-बहुत लिखता हूँ तो बोले दोस्त थोडा-थोडा लिखते रहो देखना एक दिन बहुत सारा हो जाएगा। उनका ये वाक्य सदा प्रोत्साहित करता रहता है ।

डॉ. कुंवर बेचैन का जन्म 1 जुलाई, 1942 को मुरादाबाद जिले के उमरी गाँव में हुआ था। उनका लगभग पूरा जीवन संघर्षों का समर रहा। बचपन में ही सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। बड़ी बहन और जीजा ने पालन-पोषण किया। फिर बहन भी स्वर्ग सिधार गई। डॉ. कुंअर बेचैन उन इने-गिने कवियों में से एक थे, जो कवि सम्मेलनों मे जितने सक्रिय एवं लोकप्रिय थे, प्रकाशन की दृष्टि से उतने ही प्रतिष्ठित भी। उनके गीत, नवगीत, ग़ज़ल, काव्य-संग्रह पाठकों में नई ऊर्जा का संचार करते हैं। डॉ. बेचैन ने हिन्दी छन्दों के आधार पर ग़ज़ल का व्याकरण लिखा। ये उनकी हिन्दी एवं उर्दू के नवोदित लेखकों के लिए महत्वपूर्ण देन है। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं, जैसे  पिन बहुत सारे, भीतर साँकल बाहर साँकल, उर्वर्शी हो तुम, झुलसो मत मोरपंख, एक दीप चौमुखी, नदी पसीने की, दिन दिवंगत हुए, शामियाने कांच के, महावर इंतजारों का, रस्सियाँ पानी की, पत्थर की बांसुरी, दीवारों पर दस्तक, नाव बनता हुआ कागज, आग पर कंदील, आंधियों में पेड़, आठ सुरों की की बांसुरी, आंगन की अलगनी, तो सुबह हो, कोई आवाज देता है, नदी तुम रुक क्यों गई, शब्द एक लालटेन, पांचाली आदि। उनकी ये पंक्तियां एक दम सटीक हैं कि,

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ ।

जिन्दगी  आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना  सर रखूँ ।।

पिछले दिनों अनुराधा प्रकाशन परिवार के श्री जी. एम. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक को लेकर डॉ. बेचैन से मुलाकत की चर्चा के दौरान उन्होंने कहा कि इस काव्य-संग्रह का नाम ‘काश ! हम भी वृक्ष होते’ सुझाया जो शायद एक बेहतरीन शीर्षक है। वृक्षों का काम ही सभी को प्राण वायु देना। लेकिन गीत और ग़ज़ल को ऑक्सीजन देने वाला यह वट वृक्ष इतनी जल्दी जुदा हो जाएगा किसी ने सोचा नहीं था। ‘उत्कर्ष मेल’ और ‘अनुराधा प्रकाशन’ परिवार की ओर से दिवंगत आत्मा को शत-शत नमन और विनम्र श्रद्धांजलि।

–       डॉ.मनोज कुमार

अतिथि सम्पादक (साहित्य)

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