दूर हूँ उनसे बहुत, इत्ती बात पर भी, नहीं कभी कोई मलाल आया।
हर वक्त उनकी याद रही, हर वक्त बस उनका ही ख्याल आया।।
उदास पतझड़ भी कुछेक पेड़ों पर कोई-कोई कोलम-सी पत्ती ले आया।
पहुँचे जब हम, उनकी गलियों में, चेहरे पर उनके गुलाल उभर आया।।
सवाल कोई पुराना था उनके जहन में,जो आज जाके सामने आया।
मैं पागल, गई रात उसके सिरहाने जवाबों की पोथी छोड़ आया।।
अजब-गजब करते रहते हैं वो, मैं उन्हें, उनके भरोसे छोड़ आया।
जहान भर की दे सकूँ खुशियां उन्हें, इसी उम्मीद में मैं घर छोड़ आया।।
चमकते, उजियारे गलियारों से, हमारा हाल पूछने कभी नहीं कोई हमनवा आया।
कुछ तो बात रही होगी, उन टिमटिमाते चिरागों में, जिनके सहारे मैं अंधेरों को पीछे छोड़ आया।।
उनकी इस सियासी सोच पर, अचानक मेरे मुँह से ‘कमाल है भाई’ निकल आया।
मर-मिटे थे जो इस ज़मी की खातिर, जब इतनी देर बाद उन्हें, उनका जरा-सा ख़्याल आया।।
अश्क बहा सजा भी खूब देता है वो, ताने भी बहुत मारता है आया।
“मन” मार कर जीता रहा हूँ मैं उम्रभर , अंत घड़ी मैं उनको बता आया।।
©डॉ. मनोज कुमार “मन”
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