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आज अंगूठी ढूंढ रही है

जीवन के आमंत्रित सुख अब,निर्मोही दुष्यंत बन गए।

मेरे गीतों में शकुंतला आज अंगूठी ढूंढ रही है ।

मृगछोंनों सी मृदुल फ़ुहारें,

झुलसा देतीं हैं हथेलियां,

सांसों की बुझती बाती की,

तम ने छीनी हैं सहेलियां।

मन के काण्वाश्रम में स्मृति क्षण,विरह होम के मंत्र बन गए,

तन की समिधा में शकुंतला आज अंगूठी ढूंढ रही है।

झरनों के श्रापित अधरों से,

रुदनों के स्वर झरते रहते,

वृक्ष मूर्छित सी समीर के,

कच्चे पंख कतरते रहते।

दुर्वासा दुर्भाग्य बनकर ,दुखदाई प्रेमान्त बन गए।

मेरे उच्छृवास में शकुंतला आज अंगूठी ढूंढ रही है।

अरमानों के टूटे मुक्ता,

स्वप्न सीपियों में चुभते हैं,

पांव अश्रु के उर से चल कर,

पलकों के तट पर रुकते हैं।

प्रणय झील के राजहंस अब,विद्रोही सामंत बन गए,

मेरी दुविधा में शकुंतला आज अंगूठी ढूंढ रही है।

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गीतकार -अनिल भारद्वाज

एडवोकेट ग्वालियर

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