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कंजके (कन्या भोज)पर कविता

चलों चलों आज फिर से गुलजार करतें हैं बचपन
वो छोले पूड़ी हलवे
की महक ताजा
कर कंजक(कन्या) बन
गुल्लक भरते हैं फिर
पुरानी यादों से …
हर पर्व अपनी महक और स्वाद लिए आता है,
रह रह कर बचपन की याद दिलाता है,
क्या वो दिन थे और
क्या थे जलवे,
आहा! वो छोले,
पूड़ी और हलवे!
चलों आज फिर से
गुलजार करतें हैं बचपन
माँ अंबा की स्तुति,
गरबों से सजाना
ढोल और संगीत,
वो रातों का जागना
ना थकते ये पैर ,
डांडिया में ताल मिलाना
कहां भूले हैं हम वो
नवरात्रि की चेतना
में घुल जाना….
हलवा पूरी और काले चने की ख़ुशबू फिर से लौट आयी
कोई पैरों में अलता लगाता कोई माथे पे बिंदिया
कोई वापसी पर पैसा देता कोई प्यारी सी फ्रॉक
घर घर जाना ,खाना खाना और लौट के अपने घर आना और गिनना तुम्हें कितना पैसा मिला और मुझे कितना
दुर्गा अष्टमी और नवमी ने हम कन्याओं की क़ीमत है बढ़ाई
देवी के कितने अवतार
फिर हालो रे हालो,
गरबे की पुकार
गरबे घूमे , हम मन मौजी
हो गयी पुरानी यादें ताज़ी
चलो फिर से गुलजार
करतें हैं बचपन

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