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अंतिम प्रताड़ना

आंचल ने बी.ए. की परीक्षा दी थी। आंचल के माता पिता (रमा व चेतराम )ने उसका विवाह एक छोटे शहर में अमल नाम के लड़के से कर दिया। एक कंपनी में नौकरी करता था।आंचल के ससुराल वालों को मायके के लोगों का आना-जाना बिल्कुल पसंद नहीं था।आंचल कोई भी काम करती थी उसे तायने ही सुनने को मिलते थे।आंचल दोपहर में आराम करने लेटी ही थी। सास की आवाज आई, “आंचल…आंचल क्या मर गई। सुनती नहीं। “आंचल,”माँ जी आई।”

सास रमा, “पूरे दिन आराम फरमाती रहती है।मां बाप ने शिक्षा नहीं दी।न चाय का वक्त  है।नऔर किसी काम का वक्त देखती है।”

आंचल उठी और उसने चाय बनाकर सबको दे दी।

अब शाम का वक्त हो गया।आंचल ने खाने की तैयारी शुरू कर दी।खाना तैयार करके  सभी लोगों को परोस दिया।

सास, “कान खोल कर सुन ले।सामान मुफ्त में नहीं आता है।सब्जी में इतना तेल झोंक देती है। जैसे कि इसका बाप दे गया हो।किसी चीज की चिंता ही नहीं है।कभी कुछ बिगाड़ती है।कभी कुछ बिगाड़ती है।”

आंचल, “मां जी कल सब्जी में तेल कम डाला था तो आपने टोका इसलिए।”

सास, “हरामखोर जुबान बंद रख।बहुत बकर बकर करती रहती है।पूरे दिन कुछ न कुछ बोलती है।जब भी कुछ कहो तो  लौट के जवाब जरूर देती है।तेरी मां भी ऐसी ही होगी न।”

अब आंचल बहुत दुखी थी।क्या करे? अमल सब देख रहा था।वह जानता था कि आंचल ठीक है। फिर भी एक भूत सबार था।अमल उठा  और आंचल को पीटने लगा।वह अपने घर बात करती तो भी मारता था।🌿

ससुर , “दबा दो गड्ढा खोदकर साली को। बहुत जबान चलाती है।काम ठीक नहीं करती है। मायके से क्या लाई?अटर -खटर इसके बाप ने दे दी बस।न ससुर को अंगूठी न सास को जेबर “

आंचल हर काम में होशियार थी। सभी काम ठीक से करती थी।लेकिन घरवालों को एक बहाने की आवश्यकता होती थी। पर वह मजबूर थी।

उसके लिए अक्सर यह भी बात सुनने को मिल चुकी थी कि रहना तो  ससुराल में ही है।  उसके रिश्तेदार, मायके के लोग उसे यही बताते थे। आंचल बहुत परेशान थी। वह सोचती रही।

घर का सारा काम करके सो गई।

सुबह के चार बजे आवाज आती है, “

आंचल,आंचल सबको पानी गर्म करके दे दे। चाय बना ले । दिन सिर पर आ गया “।

आंचल ने चाय बनाई और फिर से काम में लग गई।स्वयं के लिए नहाने धोने आदि के काम को समय निकालना बड़ा मुश्किल था।

सास,” सुन ले आंचल आज मेरी ब्लाउज सिल देना। फालतू सिलाई जाती है। “

आंचल, ” माँ जी जानती हूं सिलना।पर हाथ साफ नहीं है।खराब हो  सकता है। “

सास,”कतर कतर जीभ चला दी।क्या सीखा तूने मायके में?कोई हल चलाने को तो कहा नहीं मैंने। ऐसी बहू नसीब में लिखी। हूर की परी समझती है खुद को।काम में दीदा लगाती नहीं।लगाती तो सीख जाती।”

आंचल अब रोने लगी।चुपचाप कमरे में चली गई। सास मशीन लेकर बैठ गयी।

चेतराम, ” अरे अमल की मां। तुम यह क्या कर रही हो।तुम काम क्यों कर रही हो?बहू के होते हुए तुम काम करो।यह शोभा नहीं देता। “

ससुर ने आवाज लगाई, ” आंचल आंचल क्या मर गई? पूरे दिन आराम फरमाती रहती है। खटिया तोड़ती रहती है।नाक में दम कर रखा है। कोई काम ढंग से नहीं करती। हरामखोर कहीं की।सास से काम करा रही है।”

आंचल दुखी थी। सारा दिन काम करती थी फिर भी कोई खुश नहीं था।

आंचल ने अमल से कहा, “शादी को दो वर्ष हो गए।कभी तुम क्रीम तक नहीं लाए। एक डिब्बी ला देना।”

अमल, “तुझे पैसा दिखता है बस।पैसे पर नजर रहती है कि पैसा खर्च करूं।पैसा खर्च करूं।क्रीम ला दो।क्रीम ला दो।बाप से मंगा ले न अपने।क्रीम लगा कर क्या हीरोइन बनेगी।क्रीम लगाएगी तो भी घर में ही काम करना है।”

यह सहते -सहते आंचल बहुत परेशान हो चुकी थी।कोई भी काम ऐसा नहीं था जिसको करने के बाद उसे तायने नहीं मिलते। उन्हें तो बस एक बहाना चाहिए था।उसके पास जो कुछ रुपए थे।वे भी सब ने ले लिए।

कोई ठीक से बात नहीं करता था।उसे फोन तक रखने  नहीं देते थे। तायने  मिलना पिटाई खाना यह रोज की बात थी। अब अगले दिन सोचते हुए आंचल घर से निकली, आगे बढ़ी और मायके चली गई।

आंचल के माता पिता, ” यह क्या आंचल तुम अचानक चली आई।न कोई खबर न कुछ।ऐसे ससुराल से आना ठीक नहीं।  तुम्हें रहना तो ससुराल में ही है। “🌿

आंचल,” मैंने फैसला कर लिया है कि मुझे पढ़ाई करनी है।और कुछ आगे करना है।”

आंचल ने अपनी पढ़ाई शुरू कर दी।इधर अमल और उसके माता पिता ने आंचल को ससुराल आने के लिए फोन किया।पर आंचल नहीं गयी।

वह पढ़ाई करती रही।दो वर्ष लगातार पढ़ाई करने के बाद में उसकी नौकरी लग गई। 🌿आंचल अब खुश थी।उसके माता-पिता भी खुश थे।आंचल को जो जॉइनिंग लेटर मिला था।उसने उसकी ज़ेरॉक्स कराई और उसे लिफाफे में बंद करके अपने ससुराल के पते पर भेज दिया। चार-पांच दिन बाद ससुराल में डाकिये ने दरवाजा खटखटाया। डाकिये ने  वह लिफाफा अमल को पकड़ा दिया।

अमल ने माता -पिता के सामने लिफाफा खोला।

जिसमें कुछ कागज रखे हुए थे।एक कागज पर लिखा हुआ था, “अंतिम प्रताड़ना -आंचल “।

अमल के माता- पिता सोच में डूब गए।उनको कुछ कहते नहीं बनता था। अब उनके दिमाग में सिर्फ यही गूंज रहा था।

अंतिम प्रताड़ना,अंतिम प्रताड़ना

पूनम पाठक बदायूँ

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