Latest Updates

“चलो तस्वीरें बनाए”

पारमिता षडगीं

जिंदगी जिंदगी को बुला रही थी

मेरे भीतर के खालीपन में

रात भी थोड़ी थोड़ी

मेरी नींद को चुराने लगी थी

तुम्हारे भीतर व्याप्त

रहने की इच्छा

जो अनदेखी थी

जो अनसुनी थी

मेरे अकेलेपन के आतुर स्वर

आकाश को खंड खंड कर

पिघलने लगे थे

आत्मा की उपत्यका में

एक नदी बहने को आतुर

कितने सालों से

मगर अपने हृदय से उच्चारित

शब्द को न सुन पाने की

मेरी असहायता

ढूँढती रहती थी

मेरी कोई प्रतिकृति को

तुम्हारी आँखों में

तुम्हारे पदचाप ,ठीक

मेरी हृदय की धड़कन जैसे

तुम आ रहे हो न

शून्य इलाके में स्वप्न जैसे

मेरा अनुभव तुम्हारे साथ,

तुम्हारे हाथों में मेरा हाथ

देखते ….. देखते

बदल गयी थीं तुम्हारी उँगलियाँ

मेरी हाथों की चूड़ियों में

अपरिमित हमारे संपर्क

सुबह से शाम तक

बिंदु से सागर तक

पृथ्वी से चंद्रमा तक

प्रलय से सृष्टि तक

इस युग से अन्य एक युग तक

चलो कोई तस्वीर बनाएँ

नीरवता से उभर कर

बहुत कुछ बोलने वाली

रात को लेकर

हाँ, वोही रात

जो थोड़ी थोड़ी कर

चुराने लगी थी नींद को मेरी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *