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मेरे आदर्श

“सर आप जो पढ़ाते हो वो समझ तो आता है पर घर जाकर भूल जाता हूं।” इस वाक्य को सुनते ही मुझे रोष उत्पन्न हो जाता है। स्वभाव के मामले में सबसे संतुलित शिक्षक माना जाता हूं, विद्यालय में। लेकिन इस वर्ष आए एक नए विद्यार्थी के कारण मेरी प्रतिष्ठा धूमिल होती नज़र आ रही थी मुझे। प्रतिदिन कक्षा में प्रश्न के रूप में वह एक नया तीर छोड़ता और उस तीर को पकड़ने में कक्षा का सारा समय चला जाता था। प्रश्न विषय से संबंधित नहीं होने पर भी उत्तर देना ही पड़ता था। समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह इन प्रश्नों के तीरों से बचा जाए। कैसे पाठ्यक्रम करवाया जाए ? आश्चर्य की बात यही थी कि वह विद्यार्थी कक्षा में प्रथम स्थान पर था। मैं यही नहीं समझ पाता था कि यह अपना दिमाग फालतू के प्रश्नों को हल करने में क्यों लगाता है ? क्या आनंद आता है इसे कक्षा में रोज़ डांट खाने में ? मैं सभी तरीके अपना चुका था। उसे अलग बुलाकर भी समझा चुका था परंतु स्थिति जस की तस बनी हुई थी। प्रधानाचार्य जी का दो टूक जवाब था,” आपको छात्रों को संतुष्ट करना आना चाहिए। इसी बात की तनख्वाह आप ले रहे हैं।”

एक दिन कुछ विद्यार्थियों ने मुझे बताया कि मेरी शिकायत और कक्षा की गतिविधियां प्रधानाचार्य जी के पास पहुंच गई हैं। मेरे दिमाग में तुरंत सक्षम की तस्वीर उभर आई। मन ही मन मैंने उसे काफी बुरा भला कहा। नए सिरे से उसको रास्ते पर लाने के तरीके सोचता रहा। उसके प्रति मेरा रोष और भी ज्यादा बढ़ गया था। अगले दिन सक्षम को देखा तो मैं अपने आपको रोक नहीं पाया। अपनी आदत के अनुसार उसने फिर से एक प्रश्न पूछा। मैंने प्रश्न सुने बिना ही उसे ताना मारा,” तुम तो प्रधानाचार्य जी से शिक्षकों की शिकायतें कर लेते हो तो क्यों नही उन्ही से प्रश्न पूछ लेते हो? सक्षम हैरान था। संयत स्वर में उसने उत्तर दिया,” सर मैं तो इसी साल विद्यालय में आया हूं, प्रधानाचार्य जी को जनता नहीं हूं। कल तो मैं अनुपस्थित था। मुझे भी आज ही छात्रों ने बताया कि वो हमारी कक्षा में आए थे।” मैंने उसे बैठने का इशारा किया। लेकिन छात्रों के चेहरों की बदलती रंगत को मैने देख लिया था।

ये वही छात्र थे जो रोज़ ही सक्षम की कोई न कोई गलती बताकर मुझे उसे डांटने के लिए उकसाते थे। मुझे अचानक से सक्षम से आत्मीयता हो गई थी। मैंने उसे छेड़ते हुए कहा,” आज कोई प्रश्न नहीं है तुम्हारा ?” उसके चेहरे पर पहली बार अपनापन दिखा था मुझे।,” नहीं सर, कल आपने जो पढ़ाया था वो मैंने पढ़ लिया था। अब मेरे पापा घर आ गए हैं। वो कई महीनों से अस्पताल में थे। घर के कामों में मम्मी की मदद करता था इसलिए घर में ठीक से नहीं पढ़ पता था।” कहकर उसने किताब में लिखे प्रश्न हल करने शुरू कर दिए।

मैं भाव विह्वल हो गया। मैं उसकी सीट के पास गया और उसकी पीठ थपथपाई।,” तुम इस साल भी कक्षा में प्रथम आओगे सक्षम।”

पीरियड खत्म हो गया और मैं कक्षा से बाहर आ गया। आज एक नया दिन था मेरे लिए। मैं अपने आप को दोषी मान रहा था कि क्यों मैं सक्षम के मन की बात नहीं समझ पाया। एक अच्छा अध्यापक वही है जो अपने छात्रों की मनस्थिति को पढ़ ले।

कक्षा अब एकदम शांत हो गई थी। सक्षम अब खुश रहने लगा था। मैं महसूस कर रहा था कि सक्षम के प्रति मेरे बदले व्यवहार से सभी विद्यार्थी खुश थे। शायद सब यही चाहते थे बस कोई भी मुझसे सीधे कह नहीं पाता था। सक्षम के प्रति मेरा व्यवहार उन्हें पसंद नहीं था इसलिए उन्होंने प्रधानाचार्य जी से मेरी शिकायत की थी।

वार्षिक परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ तो सक्षम सर्वाधिक अंक लेकर कक्षा में प्रथम स्थान पर आया था। मैं अपनी कक्षा के विद्यार्थियों के रिपोर्ट कार्ड वितरित कर रहा था कि सक्षम अपने माता पिता के साथ मेरी कक्षा में आया। खुशी उसके चेहरे से झलक रही थी।,” सर, आपकी बात सच हो गई है, मैं ही कक्षा में प्रथम स्थान पर आया हूं।” उसने उत्साह से कहा। मैं अपनी कुर्सी से खड़ा हो गया। दोनों हाथ उसके कंधे पर रख दिए।,” तुम तो पहले विद्यालय में भी प्रथम आते रहे हो। मन लगाकर पढ़ोगे तो हमेशा ही प्रथम स्थान पर रहोगे।” मेरी बात सुनकर उसके चेहरे का रंग फीका पड़ गया।,” नहीं सर, इस बार ऐसा नहीं था। पापा की बीमारी के कारण मैं ठीक से नहीं पढ़ सका था। मेरा आत्मविश्वास कम हो गया था। उस दिन आपकी बात ने मुझे प्रेरित किया और मैंने मन में ठान लिया कि दिन रात मेहनत करके आपकी बात को सही साबित करूंगा। बस यह उसका ही परिणाम है।” आप मेरे शिक्षक ही नहीं बल्कि गुरु भी हो। आप मेरे आदर्श हो। मैं आपका आभारी हूं। आज मेरी आंखें नम थी। जिस बच्चे से मैंने साल भर नफरत की उसने मेरी बात का मान रखने के लिए जी तोड़ मेहनत की। मैंने दिल से उसे आशीर्वाद दिया। उसके जाने के बाद भी उसके शब्द मेरे कानों में गूंज रहे थे।,” आप मेरे गुरु हो। मेरे आदर्श हो।”

अर्चना त्यागी

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