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रँग भेद (एक कथालेख)

गाँ।व की पगडंडी-उस पर चलती हुई मैं।दूर एक पतली सी नदी बहती है जो पथरीली जमीन से होती हुई एक मैदान में पहुँचती है ।जलधारा कभी बहुत पतली हो जाती है और वर्षा का सहारा ले कभी कुछ चौड़ी और छोटी छोटी तरंगों से युक्त भी।अचानक ही इच्छा हुई उस नदी को देखने की।बच्चों को भी उत्सुकता थी सो हम चल पड़े।अभी दोनो ओर सरसो के खेत लहलहा रहे थे। कुछ कुछ दूरी पर वृक्षों की कुछ सघन पंक्तियाँ भी दीख रही थीं।कुल मिलाकर दृश्य मन को ताजगी से भरनेवाला  ही था।प्रकृति सदैव मन को स्वस्थ करती है, नकारात्मक विचारों को दूर कर देती है।

पर  मन की प्रकृति अजीब होती है।उसका सहज संचालन सौन्दर्य चेतना भी करती है, वह सौन्दर्य चेतना जो दिवा की श्वेत प्रभा का गुणगान करती है और रात्रि के काले तम को जीवन का संताप समझती है।उससे बचने हेतु आदिकाल से निरंतर जूझती रही है। उसकी विभीषिका जीवन के सौन्दर्य तत्व को सदैव आच्छादित करती रही।पर यह भी सत्य है कि आज का विज्ञान इस काले रंग को दिवस के श्वेत रंग का सौन्दर्य बनाता रहा है।वह अब जीवन का सौन्दर्य बन गया है।अंधकार अब अंधकार नहीं  आलोक का कारक तत्व हो गया है।अंधकार में शक्ति की साधना होती है और उसमे मन की उज्ज्वलता को ढूँढने का प्रयास।वह अँधकार है  ब्रह्माण्ड का अविचल सत्य। उसके ही प्रयासों से जीवन का उदय होता है। पर मन की सौन्दर्य दृष्टि उजाले के प्रकृति सौन्दर्य पर ही मुग्ध होती है। नेत्र उन्हीं का दास होता है।यही प्राकृतिक उत्स है रंगभेद का।

कभा कभी मानव अपनी गौरवर्णप्रियता से अपनी संतानों में भी भेद भाव का सृजन कर लेता है कभी कभी मन में प्रश्न यह उठता है कि क्या मानव करुणा भी इससे प्रभावित होती है- असुन्दर से वितृष्णा और सुन्दरता के प्रति करुणा?

मैं एक आदिवासी बहुल इलाके में रहती हूँ।उनके सारे कार्यकलाप  मुझे सम्मोहित करते हैं।जब उनके बीच से गुजरती हूँ तो उनकी स्वच्छताप्रियता ,कलाप्रियता,पशुपक्षीप्रियता ,उनके संस्कार,देव आराधना की उनकी रीति याँ आनन्द से जुड़े उनके उत्सव आदि मनुष्य के आदिम स्वभाव की एक झलक देते हैंऔर मैं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहती।उनकी भाषा कुछ परायी सी लगती है। पर, मुझसे मिलकर मेरी ही भाषा में बातें करने का उनका प्रयास मुझे लज्जित ही करता है।कभी कभी मैं सोचती हूँ कि इनसबों के वावजूद भी आखिर वह कौन सी बात है जो खटकती है और उन्हे हमारे साथ सम्पूर्णतः नही जोड़ पाती ?शायद  उनके वर्ण या रंग का काला होना। काश ये गोरे होते।अफ्रिकन्स काले होते हैं ।एक से एक प्रतिभाशाली , शरीर से सुपुष्ट, अब जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति के पथ पर।काश ये गोरे होतेतो विश्व समुदाय इन्हें दास नहीं बनाता, अपमानितनहीं करता।भारतीयों कामूल रंग भी काला है और वे भी काले लोग का सम्बोधन पाकर अपमानित हुए।धीरे धीरे विवेकशीलता इस वर्ण भेद की भावना का तिरस्कार कर रही है।श्याम वर्ण के राम और कृष्ण की भक्ति हमारी अध्यात्मिक उपलब्धि है पर आर्यों के गौर वर्ण को उनकी विशेषता मानी ही गयी। अनार्यों की कल्पना काले रूप में करना और उन्हें दासत्व से जोड़देना वस्तुतःआदिकालीन सोच का भी हिस्सा था।सर्वत्र उपेक्षा काभाव।अगर अन्य जीव जन्तुओं में भी यह भाव हो तोक्या आश्चर्य!! श्वेत से श्याम को अलग करना, जबकि सम्पूर्ण सृष्टि ही इसका सुन्दर समन्वय है,श्वेत को प्राधान्य देना ,जीव मन की आदत है।

हाँ ,तो मैंएक ग्रामीण पगडंडी पर चल रही थी।बच्चे भी साथ थे ।अचानक एक दृश्य देखकर वे चौंक गये।देखा-एक मुर्गी अपने चूजों को दाना चुगा रही थी।चूजे श्वेत रंग के थे।वे माँ के पीछे पीछे दौड़ रहे थे।किन्तु एक चूजा काले रंग का भी था। वह माँ मुर्गी सारे श्वेत चूजों को तो दाने चुगा रही थी पर उस काले चूजे को चोंच मार मारकर भगा रही थी।बार बार वह माँ के समीप जाना चाहता था पर वह उसेमार मार कर भगा ही दे रही थी।वह चूजा चिल्लाता हुआ उस राह पर चलते हमारे बच्चों के पास आकर मानों सुरक्षा ढूँढ़ रहा था बार बार वह उस मुर्गी के पास तेजी से जाता और पुनःआहत होकर  वापस आ जाता ।मैंने सोचा कि अवश्य यह चूजाकिसी और का रहा होगाजिसे वह अपने पास आने नहीं देना चाहती।पर एक ग्रामवासिनी ने कहा –

–देखअ तो भेद करअ हथिन।

मैने पूछा –क्या यह इसका चूजा नहीं?

उसने कहा–इनके हथिन। करिया हथिन न।

दो तीन दिन का ही तो है यह।

मैं स्तब्ध रह गयी। तो यहाँ भी वही भेद भाव!!

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आशा सहाय

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