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विधाता की सुंदर रचना

तुम आज इस तरह खामोश हो,

युँ उदासी का लिबास चेहरे पर क्यों डाले जाती हो

भावनाओं को आहत मत होने दो

उन्हें सुलगाओ नया लक्ष्य दो

विकट परिस्थितियाँ बहुत आएँगी

पग -पग पर पांव डगमगाऐगे

तुम मत ठहरना ध्येय अटल साधे रखना

माना की तुम स्त्री हो,

क्यों तुम्हारा स्त्री होना

कभी -कभी समाज की नज़रो पर एक अलग

छबी को दर्शाता हैं

क्यो..? क्यों तुमने उन्हें सदैव ये

सोचने का अवसर दिया कि

मर्यादा में हमेंशा तुम रहो

और वह पुरूष जिसकी

जननी स्वयं तुम हो वही तुम पर

आज अंकुश लगा रहा तुम्हारे होने

पर प्रतिचिन्ह लगा रहा हैं,

क्यों तुम उन्हें बता नहीं देती

यदि तुम चाहो अपनी जिद्द पर आ जाओ

तो उनके पुरुषत्व पर ही

प्रशन चिन्ह लगा सकती हो

मगर तुम ऐसा नहीं कर सकती

इसलिए नहीं कि तुम स्त्री हो

बल्कि इसलिए कयोंकि तुम विधाता  कि

वो रचना हो जिसे प्रेम ,समर्पण ,त्याग जैसी

भावनाओं से सुसज्जित कर

इस धरती पर भेजा गया है

जो स्वयं तो आहत हो सकती हैं

टूट सकती है किंतु पुरुष के अहं को

नहीं तोड़ना चाहती …..।

नाम-दिलशाद सैफी

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