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उसका बचपन

(सुमन नागर)

सुबह उठते ही उसका काम शुरू होता है
प्यार और दुलार से उसका दूर तक वास्ता नहीं होता है।
होता है वो रोज ट्रैफिक सिग्नल्स पर
हाथ में कभी पोछा कभी बेचने का कुछ सामान होता है।
क्या कभी सोचा है
क्यों उसका बचपन ऐसे सड़को पर बीत रहा है?
क्यों नहीं वो भी ‘क’ ‘ख’ ‘ग’ सीख रहा है?
क्या उसके आने पर भी किसी को ख़ुशी मिली होगी
या उसकी ज़िंदगी सिर्फ धूल में ही पली होगी?
वो भी तो किसी की आँख का तारा होगा
बेशक, दुनिया के लिए टूटा सितारा होगा।
रोज यही सुबह उसकी, ऐसे ही शाम होती है,
ज़िंदगी सड़क पर इसी तरह तमाम होती है।
वो क्या बनेगा बड़ा होकर
किसी को क्या फर्क पड़ता है।
इंसान है पर अपना ही जीवन ढोना उसको भारी पड़ता है।

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