Latest Updates

जिसमें शामिल ज़मीं की धूल नहीं वो बुलंदी हमें क़ुबूल नहीं

जिसमें शामिल ज़मीं की धूल नहीं

वो बुलंदी हमें क़ुबूल नहीं

तीरगी बादलों की साजिश है

चाँद की इसमें कोई भूल नहीं

मुझपे तारी जमूद बरसों से

एक मिसरे  का भी नुज़ूल नहीं

तू मुझे जब भी चाहे  ठुकरा दे  

देख इतनी भी मैं फ़िज़ूल नहीं

ग़म समेटे है सारी दुनिया का

दिल हमारा मगर मलूल नहीं

रोज़ शर्तों पे जी रही हूँ मैं

ज़िंदगी का कोई उसूल नहीं

कोई मौसम हो कोई भी रुत हो

प्यार मुरझाने वाला फूल नहीं

शायरी तेरा ये करिश्मा है

ख़ाली  रहना भी अब फ़िज़ूल नहीं

सिर्फ अपने लिए जिया जाए

ये तो मेरा सिया उसूल नहीं

———————————

हर तरफ एक जाल लगता है

यूं तो जीना मुहाल लगता है

चाँद तू भी  उदास तनहा सा

मेरे जैसा निढाल लगता है

इस बरस सब नजूम उलटे हैं

साढ़े साती ये साल लगता है

कैसे उसने रिझा लिया सबको

वो यशोदा का लाल लगता है

तुझसे मिलना है जिंदगी का सबब

तेरा मिलना मुहाल लगता है

बेहिसी का गुबार छँटने लगा

दिल में फ़िर कुछ उबाल लगता है

शौक़ अब बोझ बन गया सर का

ये तो जी का वबाल लगता है

एक एक शेर इस ग़ज़ल का सिया

तेरे दिल का ही हाल लगता है

——————————

जो बरसों डूबे रहें हैं पठन में, चिंतन में

जला है ज्ञान का दीपक उन्ही के जीवन में

परम्पराओं की इन बेड़ियों के बोझ तले

कटी है उम्र मेरी हर घड़ी ही उलझन में

यहाँ ग़रीबों को मिलती नहीं है क्यूँ रोटी

ये-वेदना ये व्यथा बस गई मेरे मन में

इसी उमीद पे गुजरी है ज़िंदगी अपनी

कभी तो आप नज़र आयें मेरे दरपन में

बस एक फ़ूल की क़िस्मत की आरजू की थी

तमाम काँटे सिमट आये मेरे दामन में

इस एक सच को समझने में लग गयी सदियाँ

बसे है राम सिया की हर एक धड़कन में

———————————

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *