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(लघुकथा) बौद्धिक विकास की कमतरी

ओ यार!  क्या तूने सुना कि फलां फ़िल्म के हीरो ने आत्महत्या कर ली !”     “हाँ , यार मैं तो देखते ही शॉक्ड हो गया ।” फोन पर बात करते हुए अर्णव अपने मित्र अर्जुन से बोला।     “अरे यार! पहले तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ, लगा कि ये फेक न्यूज है, पर यार ये तो सच निकला।     “इसे कहतें हैं “डिप्रेशन”, इतनी सक्सेस,नाम,पैसा,शोहरत फिर भी ऐसा कदम आखिर ऐसा क्या हुआ ? जो एक मात्र मौत ही ऑप्शन रही ।” 
  दोनों मित्र आपस में अफसोस अचंभित जाहिर कर रहे थे।   कमरे में पास ही बैठी  दादी माँ  अर्णव व अर्जुन दोनों की बातें सुन रही थी।  जैसे ही दोनों का वार्तालाप खत्म हुआ तो दादी माँ ने अर्णव से कहा,
” बेटा! नाहक ही अनावश्यक नकारात्मक  बातों की ओर ध्यान नहीं देना ही उचित है। तुमने  कहा कि  “इसे कहतें हैं डिप्रेशन” भला काय का डिप्रेशन… कैसा डिप्रेशन?     मुझे बताओ कि जब   इतने कम समय में इतना रुतबा,इज्जत,मान, प्रसिद्धि मिल जाये तो   सोच का भी विस्तार होना  चाहिए, क्योंकि इस मुकाम तक पहुंचने में  अनगिनत लोगों से मित्रता संपर्क स्थापित हुआ होगा।उनमें कोई तो  अजीज,प्रिय,शुभचिंतक, हितैषी  भी होगा,  ऐसे में स्वभाविक है  जीवन को देखने व सोचने का नजरिया भी बदला होगा। आप अपना हित अच्छा व बुरा भी समझने में सक्षम होंगे,  परन्तु बेटा!  इतनी ऊंचाई पर जाने पर अगर आप इतना भी नहीं समझ पाए कि जीवन की टूटती कड़ी को कब कैसे जोड़ना है,, किसी को अपना दर्द कैसे बांटना है,, तो इसे डिप्रेशन नहीं, भावहीन व्यक्तित्व बौद्धिक विकास की कमतरी ही कहेंगे।”
चन्द्रकांता सिवाल “चन्द्रेश” करौल बाग (दिल्ली) 

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