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पहले जहाँ रोज करते थे

पहले जहाँ रोज करते थे

लोग उसका पूजा बन्दन

और विवाह के अवसर पर

नई दुल्हन करती थी

धूप ,प्रसाद का अर्पण।

सूख गया वह पेड़

सुन तानो की आँधियाँ

बिखर गए सारे

दरख़्त और रस भरी

पत्तियां

नजर लगी कितनो की

सहन न कर पायीं जो

इनकी अटखेलियां।

अबतो सुख ही सुख है

दर्द का घुटन और दुख

भी तभी तक है

जबतक साँसे चलती हैं

और खुशियों का एहसास

भी तो तभी तक है।

जबतक साँसे चलती हैं।

अब तो परिंदे भी नही

बैठते और न ही

ढूंढते हैं मुझमे कोटर

अपने चूजों को

सुरक्षित रखने को

कोई पथिक भी न बैठता

मुझसे नरमी पाने को

अब मैं एक निर्जीव

पत्थर सा अवशेष हूँ

जो अतीत में जीता हूँ

बस तुम्हारे यादों को

अपने आगोश में लिये।

भटक जाऊँ कभी तो

पास के दरिया में

ढूंढ लेना

वहीं अजाऊँगा मैं

धार में बहते-बहते।

जहाँ से बिछड़ा हूँ मैं।

नन्हें

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