मेरी नस नस में बजे वात्सल्य की सितार …..
प्रकृति से प्रेम होने के कारण अक्सर मेरी भोर अँतस्थली में बहते सागर मँथन से आरँभ हुआ करती थी। पावनता की तरँगें मानवता की सरहदें मानने को तैयार ही नहीं होतीं थीं।इसलिए मेरे मन में बहता भाईचारे का चिनाब निस्वार्थ मोहब्बत की रावी से मिलने को बेचैन हो उठता था। मेरा सारा वजूद वैश्विक बँधुत्व…