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पुराने हांडी में नया चावल पका रहें धनाढ्य नेता .!

बहुत पुराने वक्त से हम सुनते आ रहे हैं कि जनतंत्र, जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन होता है। जनतंत्र में जनता होती थी, सरकार होती थी, चुनाव होते थे, नीतियां होती थी, संसद और विधायकाऐं होती थीं, जिनमें जनता द्वारा सरकार को चुना जाता था। सरकार जनता के कल्याण के लिए, उनकी समस्याओं को दूर करने के लिए, उनके दुख दर्द दूर करने के लिए कानून बनाती थी, नियम बनाती थी और शासन प्रशासन चलाती थी।जनता, इस जनतंत्र और सरकारों पर विश्वास करके, बहुत दिनों तक अपने दुख दर्द, रंजो गम और परेशानियां दूर करने के लिए चुनाव करती रही, सरकारें चुनती रही। सरकारें भी आती-जाती रहीं। सरकारें भी अपने रंग बदलती रहीं। कभी तिरंगी सरकारी और फिर कई राज्यों में लाल सरकारें भी आई हैं। अब तो अधिकांश राज्यों में और केंद्र में भगवा  सरकारों का जमाना है। अब विपक्ष जनतंत्र का लाभ उठाकर येन केन प्रकारेण सत्तारूढ़ होने लगी हैं। अब हम देखने लगे हैं कि आज अधिकांश सरकारें चुनावों के द्वारा सत्ता में आती हैं। आजकल हम देख रहे हैं कि ये रंग बिरंगी सरकारें जनता के विकास के नाम पर सत्ता में बैठती हैं, पर सरकार बनाने के बाद अधिकांश सरकारें जनता की समस्याओं परेशानियों, रंजो गम और दुख दर्द, रोटी कपड़ा मकान रोजगार शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा वृद्धावस्था वृद्धावस्था पेंशन को लगभग भूल ही जाती हैं। वे इन समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देतीं। अब तो उनका एकमात्र एजेंडा पूंजीपतियों के घर भरना, उनके मुनाफों को बढ़ाना और उनकी तिजोरियों को भरना ही रह गया है। उनका साम्राज्य कायम करना और बढ़ाना ही रह गया है। उनमें से अधिकांश नेता जनता की कीमत पर अपने घर भरने लगे हैं। अपना और अपने परिवारों के स्वार्थ पूरे करने लगे हैं। अब इनका एकमात्र काम जनता के कल्याण के लिए बनाए गए कानूनों को खत्म करना, उनके हक अधिकार छीनना ही रह गया है। शिक्षा और स्वास्थ्य के सभी अधिकारों को गरीब जनता से लगभग छीन लिया गया है। अब इन सब का निजीकरण, व्यापारिकरण और बाजारीकरण करके जनता को, इन सेठों, व्यापारियों और बाजारवादियों के हवाले कर दिया गया है और उन्हें लुटने पिटने के लिए छोड़ दिया गया है। गरीबी उन्मूलन के सभी प्रावधानों को तिलांजलि दे दी गई है। सस्ते स्वास्थ्य और सस्ती शिक्षा के सभी रास्ते लगभग बंद कर दिए गए हैं। सस्ता और सुलभ न्याय पाना अब दूर की कौड़ी और एक दुस्स्वप्न बनकर रह गया है। बस अब तो कहने भर के लिए अदालतें मौजूद हैं। अब न तो जनता और मुकदमों के अनुपात में अदालतें हैं, ना न्यायाधिकारी हैं और ना ही स्थाई बाबू, पेशकार और स्टेनों हैं। अब तो वर्षों से इन बाबू के 90% पद खाली पड़े हुए हैं जो पिछले साल जो पिछले 15-20 सालों से खाली पड़े हुए हैं। हमारे देश में इस वक्त 5 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमें अदालतों में पेंडिंग हैं। इनमें से सर्वोच्च न्यायालय में 70 हजार उच्च न्यायालय में 60 लाख और निचली अदालतों में चार करोड़ 20 लाख से अधिक मुकदमे लंबित हैं, जिनके शीघ्र निस्तारण किए जाने की कोई योजना, चिंता और नियत सरकारों के पास नहीं है। ना ही सस्ता एवं सुलभ न्याय सरकारों के अजेंडे, नियत में और नीति में मौजूद है।

       केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियों और तबादलों पर अड़ंगा लगा दिया है, जिस कारण समय से न्यायालयों में जजों की नियुक्तियां रुक गई हैं। इनका सबसे प्रमुख कारण है कि केंद्र सरकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म करके, यहां पर भी अपनी मनमानी चलाना चाहती है, उसे अपना पालतू बनाना चाहती है, उसे भी अपनी हां में हां मिलाने वाली बनाने पर आमादा है और वह न्यायपालिका का भगवाकरण करना चाहती है। यही हाल रोजगार को लेकर है। हमारे देश में लाखों-करोड़ों पद खाली पड़े हुए हैं। रेलवे, गृह मंत्रालय, रक्षा एवं डाक विभाग में 10 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हुए हैं मगर सरकार जानबूझकर रोजगार देने में और इन पदों पर उचित और जरूरी नियुक्तियां करने को तैयार नहीं है। यही हाल किसानों और मजदूरों को लेकर है। सरकार एक अरब से ज्यादा किसानों और मजदूरों के सारे हक और अधिकार छीनकर उन्हें पूंजीपतियों के आधुनिक गुलाम बनाने पर आमादा है।अब हमारे समाज, सरकार और शासन प्रशासन में, पैसे वालों का, पैसे वालों के लिए और पैसे वालों के द्वारा, का रोल बढ़ गया है। अब तो चुनाव और अधिकांश सरकारें पैसे और पैसे वालों की गुलाम बन कर रह गई हैं। अब जनता का रोल सिर्फ वोट देने भर गया है। अब सरकार जनता के लिए नहीं, बल्कि पैसे वालों के प्रति जिम्मेदार बनकर रह गई है। अब वे सब पैसे वालों के, पैसे वालों के लिए और पैसे वालों के द्वारा, की ही बन गई हैं।अब जनता, किसानों, मजदूरों और नौजवानों की समस्याएं ,गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सुरक्षा और न्याय, उनके एजेंडे में नहीं रह गए हैं। फिलहाल यहां सब कुछ पैसे वालों का, पैसे वालों के लिए और पैसे वालों के द्वारा ही, होकर रह गया है। यदि हमारी राजनीति और जनता नहीं जागी और यूं ही बंटी हुई हुई और विभाजित रहीं, तो यहां सब कुछ, पैसे वालों का, पैसे वालों के लिए और पैसे वालों के द्वारा, ही होकर रह जाएगा।

        ___ पंकज कुमार मिश्रा मीडिया पैनलिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर

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