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नदी ,ऋतुओं और स्थानीय मान्यताओँ के दृष्टिकोण से काशी का संगीत

गंगा के तट पर बसे होने के कारण काशी आदिकाल से ही हरी भरी और सम्पन्न रही है , धन धान्य से परिपूर्ण काशी मे , संतुष्टि का भाव प्रचुर रहा है , संतुष्टि के यही भाव काशी के संगीत मे चैनदारी के रूप झलकते हैं , काशी का संगीत अपने आप मे एक सरलता ,सुकून और संतुष्टि का भाव समेटी है
यहाँ की ठुमरी मे गंगा जैसा पवित्र ठहराव , तो चैती मे चैत्री नायिका के विरह के स्वर झलकते हैं , कजरी मे वर्षा ऋतु आधारित नटखट चुलबुले पारिवारिक प्रसंग तो पचरा मे शारीरिक व्याधियों मे पीड़ा से मुक्ति देने वाले स्वर उभरते हैं ,
दादरा मे लहरों की चपलता तो झूला गीत मे सावन के झूलों की उमंग रची बसी है

माँ गंगा और संगीत

काशी मे माँ गंगा को देवी रूप मे पूजा जाता है , माँ गंगा ही प्राण दायिनी ,पालनहारिणी और मोक्षदायिनी मानी जाती हैं l
यहाँ संतान की आकांक्षा से लेकर जन्म , विवाह के गीत प्रचलन मे हैं , जो गंगा किनारे गाये जाते हैं ,
संतान के जन्म पर,मुंडन संस्कार पर , उपनयन संस्कार इत्यादि पर गंगा दर्शन और पूजन का प्रावधान है
विवाह उपरांत सर्वप्रथम आशीष गंगा से ही लिया जाता है जिस प्रथा को बनारस मे गंगा पुजइया के नाम से जाना जाता है
इन अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीतों को संस्कार गीत कहते हैं , जैसे ,
१. हे गंगा मैया तोहके पियारी चढ़इबो
२. वंदन स्वीकारो माँ गंगे
३. गंगा द्वारे बधइया बाजे इत्यादि इन गीतों के स्वर बहुत मधुर होते हैं , संस्कार गीतों मे संगति खास तौर से शहनाई , ढोलक , दुक्कड़ इत्यादि लोक वाद्य यंत्रों का प्रयोग देखने को मिलता है
इन संस्कार गीतों को बनारस की स्त्रियाँ तेज खुली आवाज़ मे गाती हैं जिनके स्वर दिल को छू जाते हैं

ऋतुएँ और संगीत

फागुन : फागुन मे होली गाने की प्रथा है , फागुन के आगमन के साथ साथ ही यहाँ के कलाकार होली गायन प्रारम्भ कर देते हैं,
आज कान्हा ने मोपे रंग डारी रे.
रंग डारूँगी नन्द के लालन पे इत्यादि यहाँ की प्रसिद्ध होलियां हैं ,होली गायन मे राधा कृष्ण संयोग , ब्रज की होली , इत्यादि शाब्दिक चित्रण मिलते हैं , होली उप शास्त्रीय गायन के अंतर्गत आती है , होली का एक प्रकार होरी भी कहलता है जो की धमार ताल मे गायी जाती है और शास्त्रीय गायन के अंतर्गत आती है ,
होली राग खमज,काफी,सिंदूरा,पीलू इत्यादि रागों मे अधिक प्रचलित है ,
बनारस की एक सुंदर होली का उल्लेख कुछ इस प्रकार है,
आज कान्हा ने मोपे रंग डारी रे
भरी पिचकारी मोपे डारो न कान्हा
भिजेगी मोरी सारी रे ..
संग की सखी सब देख देख के हसेंगी दे दे ताली रे ..
रंग की भरी पिचकारी चलवात अरु गुलाल मुख माली रे
आज कान्हा ने मोपे रंग डारी रे….
चैती : चैत्र मास मे यहाँ चैती गुलाब की सुगंध से ओत प्रोत संगीत समारोह गुलाब बाड़ी की शोभा देखने योग्य होती है ,विभिन्न वाद्य यंत्र , गायन शैलियो एवं नृत्य के कार्यक्र्म आयोजित किए जाते हैं ,
बनारस की चैती विलंबित ,मध्य एवं द्रुत लयों मे गायी बजाई जाती है, बनारसी चैती मे ठुमरी सम्राट पं.महादेव प्रसाद मिश्र एवं पद्म विभूषण विदुषी गिरिजा देवी जी
काफी लोकप्रिय हुए
बनारसी चैती मे चैत्र मास के गुणो का वर्णन , नायिका संयोग , वियोग इत्यादि के वर्णन देखने को मिलते हैं ,
जैसे – चैत मासे सइयाँ नाही अइले हो रामा .. जिया घबरईले

सावन : सावन मे कजरी , झूला आदि गायन शैलियाँ वर्षा ऋतु के सौन्दर्य को और भी बढ़ा देती हैं ,यूं तो कजरी के कई प्रकार हैं , कजरी लोक संगीत के पक्ष से भी गायी बजाई जाती है , पर बनारसी कजरी विशेषतः शास्त्रीय संगीत मे ढली हुई मिलती है,
यहाँ की कजरी राग देश, पीलू , तिलक कामोद , खमाज ,तिलंग आदि रागों मे गायी जाती है , यहाँ कजरी ठाह यानि धीमी गति मे गाते हुए फिर द्रुत गति मे प्रवेश करती है और वापस मुखड़ा ठाह गति पे लाने से श्रोता गणो को बड़े आनंद की अनुभूति होती है,
आज मन ले गई झाँके झरोखे , झुलनिया वाली रे दइया ,
चलली नहनवा एरी मदमाती रे गुजरिया रामा
अरे रामा झूमी पग धरनी डगरिया रे हरी ,
इत्यादि बनारसी कजरी के सुंदर उदाहरण हैं l

इसी के साथ बाग मे झूला पड़ने साथ झूला गीतों का भी प्रचलन है
जैसे –
सिया संग झूले बगिया मे राम ललना ,
झूला धीरे से झुलाओ बनवारी , अरे सवारिया ना, इत्यादि झूला गीत काफी प्रसिद्ध हैं l
त्योहार और संगीत
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काशी मे धार्मिक आयोजनों और त्योहारों का विशेष महत्व है l यहाँ तुलसी विवाह , राम जन्म , कृष्ण जन्माष्टमी से लेकर नवरात्रि तक के गीत हैं ,देवी गीतों मे माँ शीतला के पचरा गीत के बारे मे ऐसी मान्यता है की रोगी के निकट बैठ कर यदि पचरा गाया जाये तो रोगी को पीड़ा से मुक्ति मिलती है और आराम होता है ,पचरा गीत मे शीतला माता के नख से शिख तक का सुंदर वर्णन मिलता है जैसे –
मैया के लाल चुनरी सोहे मैया नारियल की छबि लगे रे..मैया डगरा लिए
मैया के कानन झुमका सोहे मैया नथियन की छबि लगे रे ..मैया डगरा लिए
इत्यादि , बारी बारी से शृंगार का वर्णन किया जाता है l
यहाँ कृष्ण जनम के ऐसे ऐसे गीत प्रचलन मे हैं जो बडे ही प्राचीन और दुर्लभ हैं जैसे –मै लईहों नेग रानी जी से कर कंगना
-नन्द घर बाजत बधइया,लाल हम सुन के आई इत्यादि

मंदिर और संगीत

काशी के सभी मंदिरों के समारोहों मे शास्त्रीय संगीत की ही प्रधानता रहती है ,यहाँ का विश्व प्रसिद्ध संकट मोचन समारोह हर वर्ष अप्रैल के महीने मे मनाया जाता है ,इस समारोह की ये विशेषता है की यहाँ अनवरत शासरीय गायन , वादन और नृत्य द्वारा संकट मोचन बाबा का नादर्चन किया जाता है ,जिसमे हाजिरी देने के लिये देश विदेश के कलाकर तत्पर रहते हैं,इसके साथ बनारस मे गंगा महोत्सव ,महामृत्युंजय महोत्सव ,महाशिवरात्री महोत्सव इत्यादि समारोह पूरे उत्साह के साथ मनाए जाते हैं ,इनकी सबसे सराहनीय बात ये है कि काशी के श्रोतागण शास्त्रीय संगीत को बारीकी से समझते हैं , जिससे प्रस्तुति करते समय कलाकार को भी हर्ष होता है ,
विलंबित लय पर चलते बड़े ख्याल की गहराई हो या द्रुत लय पर चलता चंचल प्रकृति का दादरा हो ,बनारस के श्रोता बड़े चाव के साथ सुनते हैं ।
उन्हे राग रागिनियों और ताल का भी प्रचुर ज्ञान होता है ।

बनारस का संगीत वाकई मे दिव्य और अनन्य है l

-प्रियंवदा मिश्रा मेघवर्णा

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