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आदरणीय वशिष्ठ नारायण सिंह जी

अलविदा सर, अच्छा हुआ आपको इस‌‌ दुनिया से जल्दी ही मुक्ति मिल गयी । हां आपको सम्पूर्ण सम्मान इस दुनिया में नहींमिला इसका दुख अवश्य ही रहेगा। आपकी भी तो

गलती थी राष्ट्र भक्ति के चक्कर में पड़ गये और वापस अपने वतन लौटकर आ गये। क्या मिला आपको अपने वतन में। किसी पैसे वाले अपने रसूखदार साथी ने आपके शोध-पत्र हड़पकर

अपने नाम छपवा लिया और आप कुछ भी तो

नहीं कर सके। उस कुछ न कर पाने की पीड़ा

भी आपके बीमारी का जड़ बनी ।

             कुछ पत्नियां केवल दौलत की भूखी

होती हैं अगर दौलत नहीं तो बीमार पति को

भला क्यों झेलना।आपको संगिनी भी ऐसी ही

मिली।प्यार का अभाव बढ़ता ही रहा समाज से

भी और घर से भी। ऐसी परिस्थिति में इंसान टूटकर बिखरता  ही है संभलना तो बहुत ही कम लोगों के बस  की बात होती है।

        डॉ शम्भू कुमार पटना के अनुसार,- “विश्व में ऐसे बहुत से लोग हुए जिन्होंने इस व्याधि के बाबजूद बहुत ही अद्भुत कार्य किया । कुछ को नोबेल पुरस्कार भी मिला । अपने भारत में भी बहुत ऐसे विशिष्ट लोग हुए जो इस व्याधि से ग्रसित थे । कई लेखक ,कवि  शायर , कलाकार आदि भी । महाकवि निराला अपने अंतिम दिनों में इस बीमारी से परेशान थे । इस बीमारी में रासायनिक चिकित्सा की जरूरी होती है जो दिमागी रसायनों को संतुलित करती है खासकर सेरिटोनिन, गुआटोमेट, डोपामाइन और एंडोफिरन्स को , जो न्यूरॉन्स को सही ढंग से काम करने को प्रेरित करती हैं । साथ ही बिहेवियर थेरेपी की भी जरूरत होती है । प्यार और संवेदना सबसे बड़ी दवा होती है इस बीमारी में । “

           संवेदना और प्यार की ही सबसे ज्यादा कमी रही वशिष्ठ नारायण जी के जीवन में। रही सरकार तो सरकार भी तो आदमियों से बनी एक संस्था ही तो है जिसमें बड़े-बड़े अमीर –

उमरा जुड़े होते हैं। वे अमीरों को छोड़कर भला

आपके बारे में क्योंकर सोचते?नाम करने के लिए विदेशियों की मदद भले ही करें पर अपने

ही देश के जरूरतमंदों पर उनकी नजर तक नहीं पड़ती। वशिष्ठ जी आप विशिष्ट थे आपका

नाम अजर अमर है,पर जो दर्द आपने झेला वह

बहुत ही सोचनीय और निंदनीय है। सरकार अगर चाहती तो अच्छे‌ से अच्छा इलाज करा

सकती थी देश से विदेश तक ले जाकर आपको

चिकित्सकीय सेवा उपलब्ध करा सकती थी

और अपने देश की महानतम प्रतिभा को बचा सकती थी । वह चाहती तो आपके प्रतिभा को

और भी आगे ले जाती पर नहीं ऐसा कैसे संभव था क्योंकी वशिष्ठ नारायण जी अमीर घर के वशिष्ठ नारायण जो नहीं थे।

        समाज भी अमीरों की तरफ़ ही झुकता है और गरीब अगर प्रतिभाशाली हैं तब तो उसकी टांग खींचने में ही उन्हें सुख-शांति की प्राप्ति होती है। नहीं तो कुछ लोग मिलकर भी उनका

अच्छा इलाज करा सकते थे। विजयानंद जी के

शब्दों में,-“मैं उसी जिले में पदस्थापित था, जिसमें उनका गाँव बसंतपुर है। तिरस्कार, उपेक्षा का दंश झेला इस अतिविशिष्ट वशिष्ठ ने।स्टीफन हॉकिन्स को तो अमेरिका ने सुरक्षित और संरक्षित रखा अपने प्रबल संसाधनों/सुविधाओं से।मगर राजनीति में भयंकर रूप से डूबी हुई हमारी व्यवस्था, जो सिर्फ नेताओं की जय-जयकार में लिप्त है, ने इस विलक्षण प्रतिभा का वो हाल किया कि आह – सी निकल जाती है। अनाप-सनाप चीजों पर करोड़ों-अरबों खर्च करने वाला यह देश एक अतिविशिष्ट मानव की विशिष्टता का उपयोग न कर सका और वह सितारा तिरोहित हो गया। काश कि ऐसा न होता…!”

               आपको अंतिम समय में भी उचित सम्मान नहीं मिला। किसी हीरो या नेता के लिए तो अस्पताल में भीड़ उमड़ पड़ती है और देश के इतने बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति के जाने पर ऐसा लगा की दूर दूर तक उन्हें कोई जानने वाला ही नहीं है। घंटों तक उनके भाई को एम्बुलैंस का इंतजार करना पड़ा ।वे वशिष्ठ नारायण सिंह जी की बॉडी स्ट्रेचर पर लेकर खड़े एम्बुलेंस का इंतजार करते रहे। मीडिया जो हीरो या नेताओं के आगे-पीछे ही नाचती रहती है उनके पास भी वशिष्ठ नारायण जी के लिए पर्याप्त समय नहीं था।

            अंतिम संस्कार भी खानापूर्ति मात्र प्रतीत हो रहा था। शीशे का बॉक्स उनके लिए

नहीं था। हमें एक बात जरूर समझनी होगी की रोज रोज वशिष्ठ नारायण सिंह नहीं जन्म लेते ,देश को एक दिन अपने कर्म पर पछ्तावा जरूर होगा।

            शत कोटि नमन वशिष्ठ नारायण जी।अब किसी और देश में जन्म लीजिएगा जहां

आपकी प्रतिभा का उचित सम्मान करने वाले

लोग रहते हों, समाज हो और सरकार हो।

      पुनः शत कोटि नमन वशिष्ठ नारायण सिंह जी।

डॉ सरला सिंह “स्निग्धा”

दिल्ली

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