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गण और तंत्र की बढ़ती दूरी

कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

सर्वजन हिताय, सर्वजन रक्षाय और सर्वजन सुखाय की भावना से निहित एक सार्वभौमिक संविधान की छाया के तले बहुभाषी, बहुजातीय, बहुधर्मावलंबियों का समूह स्वच्छन्दता और निर्भीकता के साथ जीवनयापन कर रहा हो वह गणतंत्र अपनी माधुर्य मुस्कान के साथ अपना 73 वां दिवस मनाने जा रहा है । स्तुत्य तो होगा ही । गण से तंत्र को जोड़कर पूर्ण स्वराज्य और सम्पूर्ण विकास की यात्रा प्रारंभ की गई थी । इस यात्रा को मुकाम तक पहुंचाने का साधक बना था हमारा लोकतंत्र, जिसे विश्व के सबसे बड़े और अलौकिक लोकतंत्र के नाम से आज भी पहचाना जाता है । हमने अपनी यात्रा तो प्रारंभ की पर मंजिल हर बार दूर होती दिखाई देती रही है । क्या हम अपने सफर से भटक गए या हमने केवल सत्ता की कुर्सी को ही विकास का पर्याय मान लिया चिन्तन तो करना ही होगा । 15 अगस्त 1947 को जब हमें स्वाधीनता मिली तो हमारे चेहरों पर उल्लास और हर्ष के भाव थे । हमने लगभग दो सौ साल की गुलामी को झेला था । हमने अपने ही देश में परायेपन का अनुभव किया था । हमने अपने ही देश में गुलामो जैसे जीवन जिया था । हमने अपनी ही संस्कृति और संस्कारों पर कुठाराघात होते देखा था । हमारा हृदय विदीर्ण था । इस विदीर्ण हृदय में दासता के घावों का दर्द था, इस विदीर्ण हृदय में पराये शासकों की क्रूरता की वेदना था, इस विदीर्ण हृदय में बलात् किए जा रहे अत्याचारों की सिसकी थी । इसके खिलाफ खड़े हुए थे वे देश भक्त जिन्होने अपने जीवन का मोह छोड़ दिया था । लाखों भारतीयों ने अपने सिर पर कफन बांधकर इस गुलामी का प्रतिकार किया था, लाखों युवाओं ने देश को गुलामी से मुक्त कराने का संकल्प लेकर अपना घर त्याग दिया था । जाने कितने देशभक्त भारतीयों ने अपने जीवन को बलिदान कर दिया , जाने कितनी माताओं ने अपनी संतानों से अपने घर के आंगन को सूना कर लिया, जाने कितने महिलाओं ने अपने मांग के सिंदूर को पौंछ कर माथे पर तिलक लगाकर उन्हें भेज दिया इस गुलामी के विरोध करने के लिए । ऐसे ही तो नहीं मिली हमें आजादी । मिल भी नहीं सकती थी जब तक उनका प्रतिकार न होता, जब तक उन्हें यह अहसास नहीं होता कि भारतीय लोगों के नरम दिल के अंदर एक कठोर संकल्प भी जन्म ले सकता है । एक ऐसा सकंल्प जो असंभव को संभव कर देता है । असंभव सा ही तो लगता था कि सम्पूर्ण रूप से साधन सम्पन्न अंग्रेजों के खिलाफ निहत्थे अपना सीना खोलकर खड़ा हो जाना और मांग करना कि हमें आजादी दो । असंभव ही तो लगता है कि ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुहें आजादी दूंगा’’ का उद्घोष कर विशाल जन समूह के साथ हथियारों से लेस अंग्रेज सेना के सामने खड़ा हो जाना । असंभव सा ही तो लगता है कि पूरी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदीराम बोस जैसे युवाओं का उनकी ही असेम्बली मं घुसकर बम्ब पटक देना । सब असंभव था, पर सच केवल एक ही था कि हमें आजाद होना था और इसके लिए सबकुछ खोने का संकल्प लिया था । अहिंसा के रास्ते की यात्रा को भी तय किया गया और असहयोग के नारे के साथ अविभाजित भारत के कोन-कोने में गांधी जी का आव्हान रंग दिखाने लगा । हम आजाद हो गए । हमने नए उत्साह के साथ ढेरों सपनों को तीन रंगों में शामिल कर लाल किले की प्राचीर से उन्मुक्त हवा में अपना ध्वज फहरा दिया । लहर-लहर लहराया तिरंगा ‘‘जन गण मन अधिनायक जय हो’’ की सप्त स्वर लहरियों ने गुंजित कर दिया आसमान । सदभाव, समर्पण, विश्वास, श्रद्धा और देश भक्ति की पवित्र भावना के साथ हमने प्रारंभ किया अपना नया सफर । बहुत सारे छोटे-बड़े स्वतंत्र राज्यों को अपने तिरंगे के नीचे शामिल कर गणराज्य बना दिया । इस गणराज्य की यात्रा 26 जनवरी 1950 से प्रारंभ हुई । हमारी लम्बी पर उत्साहवर्धक यात्रा में सहभागी हुआ इस देश का हर एक नागरिक । ‘‘वंदेमातरम्’’ के उद्घोष के साथ होता चला गया नई उर्जा का संचार । पर अब गणतंत्र की यह यात्रा कहीं भटक गई महसूस होने लगी है । हमारी मंजिल तो सामने है पर रास्ता चैराहों में बदल चुका है । राजनीतिक दलों के जिम्मेदारी में था मंजिल तक देश को पहुंचाना, पर वे नये रास्ते के अनुगामी बन भटकाव को ही जन्म देते रहे । हर दल ने विकास की अपनी परिभाषा बनाई, हर नेता ने प्रगति को ‘‘स्व’’ आधारित बनाया । इसमें वह उन्नति भटकती दिखाई देने लगी जो हमारा लक्ष्य था । किसी भी लोकतांत्रिक देश में ‘‘सत्ता की कुर्सी’’ कभी मंजिल नहीं होती । कुर्सी तो केवल माध्यम होती है लक्ष्य को पा लेने की पर अब लगने लगा है कि सत्ता की कुर्सी ही मंजिल हो चुकी है । ऐसे में सपने तो चूर-चूर होंगे ही । सदन का अखाड़ा बन जाना और सड़कों का धरना स्थल बन जाना इस बात के प्रमाण हैं कि हम भटक चुके हैं । प्रतिवर्ष अरबों रूपयों के बजट के बाद भी हमारे ग्रामीण अंचलों की सुविधाहीन तस्वीर दर्शाती है कि हमारी योजनाओं में कुछ तो गड़बड़ हो रही है । बढ़ती मंहगाई, घटती आमदनी और उदास चेहरे गणराज्य के वर्तमान परदिृश्य का विदू्रप चेहरा ही तो है । विकास दल आधारित हो गया है और योजनायें शासन आधारित हो चुकी हैं । चुनावों की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं और शासन-प्रशासन की मदद करने वाले सरकारी ढांचे सत्ता के गुलाम के विशेषणों से सम्बोधित किए जाने लगे हैं । कुछ तो गड़बड़ हुई है, पर हम इस गड़बड़ को खोज कहां रहे हैं । हमने शुतुरमुर्ग की तरह आंख बंद कर अनदेखा करने का गुण सीख लिया है । हमने ‘‘चीन्ह-चीन्ह कर रेवड़ी बांटने’’ वाली कला को सीख लिया है, हमने ‘‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’’ के मुहावरे का प्रहसन करना सीख लिया है । कल्पना कर बनाई गई सुन्दर तस्वीर कभी तकदीर नहीं बदल सकती के भावों को समझकर भी हमने विकास के सन्ुदर चित्रों की प्रदर्शनी लगाकर मनमोह लेने की तरकीब सीख ली है । यही हमारा 21 वीं सदी के दो दशकों के गुजरे पलों का सार है । हमारा गणतंत्र अपने ठोस स्वप्न लिए आज भी अपनी आभा बिखेर रहा है पर उसकी सप्तरंगी किरणों का स्पर्श हर नागरिक कर नहीं पा रहा है । हमें चिन्तन करना होगा । दोषी कोई नहीं है केवल परिस्थितियों का बदलाव है पर हम ऐसे बदलाव को दुरूस्त करने का माद्दा तो रखते ही हैं । हम एक बार फिर चिन्तनशील, मननशील बनकर इसका रास्ता निकाल ही लेगें । आइए हम इस गणतंत्र दिवस पर अपने प्यारे तिरंगे के नीचे खड़े होकर रास्ता खोजें और वंदेमातरम का गान करते हुए अपने सकंल्प को दोहरायें ‘‘जनगणमन अधिनायक जय हो’’ के मंत्र के साथ भारत के उज्जवल भविष्य की प्रार्थना करें । हर वर्ष हमारा गणतंत्र दिवस हमें नई उर्जा देकर अपने पथ पर अग्रसर होते रहने की भावना देता है इस बार भी हम भटकाव के बिन्दु से निकल मूल पथ पर अग्रसर होने की कामना के साथ अपने देश को, अपने तिरंगे को सलामी दें ।

आप सभी को गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाऐं ।

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