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जनकल्याण ग़र इबादत हो तो रोगमुक्त भारत हो

Kavita Malhotra

परिंदे खुले आसमान में इन्सानों पर मौत का साया है
पिंजरे में नज़रबँद मानवजाति ये कैसा वक्त आया है

करो-ना नामक एक नकारात्मक वायरस ने समूचे विश्व को अपनी चपेट में लेकर मानवता के हनन पर अपनी मोहर लगा दी है।कोई तो कारण होगा इस प्राकृतिक आपदा का।
हर तरफ बेशुमार सँदेशों का प्रचार, जो है तो जनहित के लिए मगर, किसी को भी पूर्णतया समझ नहीं आ रहा है। कोई अब भी हेकड़ी में है, कि हमें तो कुछ हो ही नहीं सकता, और कोई रोज़ी रोटी की तलाश में अपनों से दूर है और उन तक पहुँच जाने की अफ़रातफ़री में दिशाहीन भटक रहा है।एैसी स्थिति में केवल जागरूकता की ही सर्वाधिक आवश्यकता है, जो जन साधारण के लिए उपयोगी साबित हो सकती है।
देह की सुरक्षा का सबसे पहला उपचार स्नेह से ही सँभव है। यदि हम मानवता का प्रसार करना चाहते हैं, और इस कठिन समय की घड़ी में वास्तव में किसी की मदद करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपनी मदद करने के लिए कमर कसनी होगी।
दिन रात चारदीवारी में नज़रबंद क़ैदियों की तरह समय गुज़ारने की सज़ा प्रकृति ने जनमानस को दी ही इसलिए है ताकि बेबसों पर ज़ुल्म ढाते वर्ग विशेष की ज़्यादतियों को महसूस करके, अपने अँदर के तानाशाह का रूपाँतरण सिकँदर में किया जा सके। जो एक सम्राट होकर भी खाली हाथ दुनिया से गया था। यही समय है इस चिंतन का कि हम सभी एक दूसरे के प्रति सँग्रहित अपनी ईर्ष्या-द्वेषी मनोवृत्तियों को त्याग कर, कोरोना वायरस की तरह बिना भेदभाव एक दूसरे के कल्याण के लिए सारी सृष्टि को अपनाएँ।
घरों के बाहर भी वैचारिक मतभेद के कारण कई लोग अब तक चक्रव्यूह को तोड़ पाने में असफल हो रहे हैं, और घरों के अँदर का तो कहना ही क्या।
परस्पर द्वेष की मनोवृत्तियाँ इन दिनों अपने पूरे ज़ोरों पर हैं और एक दूसरे पर अपनी लगाम कसने को बेताब, परस्पर द्वेष की सामग्री डाल कर न जाने किस हवन का दम भर रही हैं।
अब तक भूली बैठी है हमारी आधुनिक सभ्यता कि जिस यज्ञ में वेदों पुराणों की बानी का आभामँडल न हो उस यज्ञ की राख तो केवल बर्तन माँजने के ही काम आएगी।
जिस भभूति की लालसा में तीर्थ किया करते थे, वो भभूति तो केवल अपनी मैं को भस्म करके ही हासिल की जा सकती है।
एक बात तो तय है कि करोना नामक वायरस ने समूचे विश्व को चेताने के लिए ही अपने पँख फैलाएँ हैं कि अब हर तरफ जघन्यता की अति हो चुकी है इसलिए अब और दानवता करो-ना।
अब ये तो हर किसी का व्यक्तिगत चयन है कि करो-ना वायरस का उपहास उड़ा कर भीड़ में शामिल हो जाए या फिर इस महामारी के वायरस की चुनौती पर चिंतन कर के अपनी सोच का रूपाँतरण कर ले।
सृष्टि की सेवा में सहज भाव से अपना सर्वस्व अर्पण करती प्रकृति,आज स्वार्थी विश्व से अपना ऋण उतरवाने पर आमादा है, क्यूँकि मानवता के पतन की तमाम हदें पार हो चुकीं हैं। समूचा विश्व एक दूसरे पर अपने परमाणु व जैविक हथियारों के हमले करके सर्वत्र अपना एकाधिकार स्थापित करने पर आमादा है।
बेहाल प्रकृति की केवल एक ही करवट ने आज समूचे विश्व की गगनचुंबी उड़ान को धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है,जो एक ही परम शक्ति से स्वस्थ रहने की विनती करते हुए नज़र आ रहा है,और रहमत की एक बूँद को तरस रहा है।ये समूचे विश्व को आइना दिखाती,सात्विकता  का उदय नहीं तो और क्या है? एक दूसरे से सँक्रमण के ख़ौफ़ से आज अपने घरों में नज़रबँद समूचे विश्व के लिए ये चिंता का नहीं अपितु चिंतन का समय है।खुद को मानवता के पतन के मज़हबी कीटाणुओं से सँक्रमित न होने दें व मानवता के उत्थान को विस्तार देकर वासुदेव कुटुँब की स्थापना करें।यदि नेह निस्वार्थ होगा तो देह स्वत: ही रोगमुक्त हो जाएगी।

ये वक्त नहीं है चिंता का
इसे चिंतन का पैग़ाम दो

अब तक बर्बरता कर चुके
उस जघन्यता को लगाम दो

छत और रोटी की मदद देकर
हर ज़रूरतमँद को आराम दो

ये समय नहीं है भेद भाव का
समभाव से स्नेहिल जाम दो

परदेसी तो हम सभी यहाँ पर
लौटने हेतु यज्ञ को अँजाम दो

सब आधार बेमायना हो गए
खुद को मानवता का मान दो

हुए अराधना के सब कपाट बँद
ताकि इँसानियत को पहचान दो

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