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देश की समस्याओं का नीतिगत हल जरूरी !

दुर्भाग्य है कि आजकल सत्ता से असहमत होने के अधिकार से जनता को वंचित करने की लगातार कोशिश की जा रही । किसान आंदोलन के नाम पर सरकार अपने विरोधीयों को देशविरोधी साबित कर भारतीय संविधान  के असहमति और तर्क के सौंदर्य की हत्या करने एवं संविधान में दिये गये अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य के अधिकार को नष्ट करने के अभियान में जुटी है। स्थानीय स्तर पर भी ये चरम पर है । जब भी मैंने एक पत्रकार होने के नाते अपने क्षेत्र के विकास का मुद्दा उठाया मुझे मुख्य विचारधारा से अलग साबित कर अनदेखा किया गया । सत्ता के इस अभियान को अपनी ही परम्परा से अनजान और कतिपय लोभ से भरे तमाम लोग पागलपन की हद तक समर्थन ही नहीं दे रहे हैं बल्कि प्रसन्नतापूर्वक सत्ता के हथियार की तरह इस्तेमाल भी हो रहे‌ हैं। उससे भी ज्यादा लोग तटस्थ हैं। कोई नृप होई हमें का हानी की मुद्रा में। समय उनका अपराध दर्ज करेगा। ताजा उदाहरण अफगानिस्तान और तालिबान का मुद्दा है, वहां लोग डरे हुए है। हमारे स्वतंत्रचेता पुरखों ने बार-बार असहमति को वैचारिक विकास के अनिवार्य उपकरण की तरह स्वीकार किया है। झूठ और हिंसा से भरे इस समय में, आधुनिकता की चेतना को नष्ट करने वाली प्रतिगामी धार्मिक लहर की खतरनाक वापसी के इस दौर में जरूरत है ऐसे लोगों की जो अन्याय, हिंसा, असहिष्णुता और यातना के आगे न झुकें,  उसका किसी भी कीमत पर प्रतिकार करें। विरोध दर्ज करने का तरीका संवाद भी हो सकता है ! हालांकि आंदोलन का स्वरूप बदला है , आंदोलन सड़क ,रोको  रेल रोको से ऊपर उठा है , प्रशासन ने ज्यादातर भीड़ को  को उनके प्रदर्शन  से पहले ही रोक लिया था जहां आंदोलनकारी किसान डटे हुए थे, फिर भी जैसे ही कोई नेता आता, फूल बरसाए जाते, पहले उन्हें हुए कष्ट के लिए माफी मांगी जाती, फिर चाय नाश्ता कराते हुए उन्हें जनता को सरकार  से होने वाली परेशानी और खतरे के बारे में बताया जाता जिनका वे विरोध कर रहे हैं। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों को ही बहुत पहले से घोषित इस अभियान का पता था फिर भी उन्होंने असम में विकास यात्रा और पश्चिमी बंगाल में परिवर्तन यात्रा का कार्यक्रम बनाया ! मकसद था मीडिया को किसान  अभियान कवर करने से रोकना और वैसा हुआ भी ! इक्का दुक्का चैनलों को छोड़ कर किसी ने भी इसके बारे में ‘आंखों देखी’ खबर नहीं दिखाई क्योंकि यह देश  रोको अभियान विकास यात्रा और परिवर्तन यात्रा के मुकाबिल खड़ा हो गया था !

          एक में आंकड़े के अंतर्गत देश में चुनाव से कुछ समय पहले  हिंसा परोस दी जाती है ! बता दें कि असम और बंगाल दोनों में चुनाव जहां पहले हिंसा हुई तोड़फोड़ हुआ अराजकता फैला ! बंगाल में चार परिवर्तन यात्राओं के साथ हिंसा का दौर भी शुरू  हुआ  । बंगाल में टी एम सी के प्रमुख  ममता के एक मंत्री पर बम से भी हमला हुआ,जबकि छिटपुट वारदातो में कई लोकल भाजपाइयों पर भी पथराव और चाकूबाजी हुई ।अब बारी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के हैं तो यहां भी ऐसा लग रहा है कि किसान आंदोलन के नाम पर तोड़फोड़ और अराजकता फैलाई जाएगी । संघर्ष का दायरा भी बढ़ रहा है , जनता से जैसे संपर्क साधा जा रहा है, देश का किसान, किसान आंदोलन से सीधे जुड़ने की कोशिश कर रहा है , उससे फिलहाल तो यही लग रहा है कि राजनीतिक दलों के लिए यह एक खतरे की घंटी भी साबित हो सकती है ! पंजाब में तो यह साबित हो भी चुका है ! स्थानीय निकायों के चुनाव में सीधे भागीदारी न होने के बावजूद किसान मुद्दे ही छाए रहे इसमें और परिणाम यह हुआ कि दो दशकों से चले आ रहे सत्तारूढ़ अकाली-भाजपा गठजोड़ का सूपड़ा ही साफ हो गया ! फिर भी कांग्रेस अगर गलतफहमी में जीना चाहती है तो उसकी मर्जी क्योंकि उसने तो छूटते ही बयान दे डाला कि यह उसकी नीतियों की जीत है !! नीतियां तो‌ भाजपा की भी वही हैं जो कभी कांग्रेस की थी, अलबत्ता उन्हें लागू करने की गति में अंतर जरूर आया है ; तब भी डब्लयू टी ओ और अाई एम एफ का कहा मानना पड़ता था, आज भी मानना पड़ता है और किसान नेतृत्व इस बात को समझ चुका है तभी वह निजीकरण के खिलाफ आम जन को जागरूक करने लगा है ! रोल रोको अभियान तो इसी कोशिश का एक हिस्सा मात्र है !

            शायद कांग्रेस यह माने बैठी है कि मुख्य विपक्षी पार्टी होने के इसका लाभ तो इसे ही मिलने वाला है तभी उसने इस अप्रत्याशित जीत को अपनी नीतियों की जीत बताया है ! अगर ऐसा है तो वे 14 आजाद उम्मीदवार कैसे भारी वोट अंतर से जीत गए जिन्हें चुनाव चिन्ह ट्रैक्टर मिला था ? वोटिंग तो अकाली- भाजपा गठजोड़ के खिलाफ और किसानों के पक्ष में हुई ! अकाली-भाजपा गठजोड़ ने जो का्ट्रैक्ट फार्मिंग का कड़ा कानून बनाया था, कांग्रेस विधानसभा के बहिष्कार के तर्क के पीछे छिप कर दाग से छुटकारा नहीं पा सकती ! प्राथमिकता तो पार्टी को तय करनी होती है ; उसके लिए ज्यादा जरूरी क्या है – नाक के सवाल पर सदन का बहिष्कार या फिर किसानों के हक़ में काले कानून का जोरदार विरोध ! रेल रोको अभियान ने सरकारी नारेटिव की बखिया उधेड़ कर रख दी है कि कुछ इलाकों तक ही सीमित है किसान आंदोलन ! पूर्वी यूपी, मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना, झारखंड, बिहार, बंगाल और उड़ीसा तक इसका प्रभाव देखा गया है ! इसका अर्थ यह हुआ कि यह आंदोलन अब पूरे देश में फैल रहा है और आम जनता पहली बार समस्या के सही स्वरूप को समझने लगी है !

             — पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर ।

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