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माँ!.. ..(कविता-5)

याद मुझे है माँ देखो !

अब भी कुछ-कुछ

बचपन की वह यादें ..

जब तुम रखती थी

अंजुरी में भरकर अपने

सरसों का वह तेल

मेरे सूखे माथे पर

और ठोकती रहती थी

दोनों कोमल हाथों से

तब-तक, जब-तक

वह भिन न जाता था

सिर के बालों में

कहती थी सर की पीरा

छू मंतर हो जायेगा

और उजाला आँखों में

इससे बढ़ खूब जायेगा …

ऐसे ही बहला-फुसलाकर

मेरे हाथों-पैरों में,

पेट-पीठ, गालों पर

सरसों का वह तेल मलकर

रोज लगाती थी दिन में

याद मुझे है माँ देखो!

अब भी कुछ-कुछ

बचपन की वह यादें…..

डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’

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