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उत्तर प्रदेश को अब पुनः ब्राह्मण मुख्यमंत्री चेहरे की जरूरत !

उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा का शीर्ष नेतृत्व मंथन करने में जुट गया है । मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा ये अब गंभीर विषय बन रहा । बात करें योगी आदित्यनाथ जी के कार्यकाल की तो उनके कार्यप्रणाली से सवर्णों का एक बड़ा वर्ग, ब्राह्मण वर्ग नाराज है । कारण स्पष्ट है कि भगवान परशुराम जयंती की अवकाश का खत्म होना एवं ब्राह्मण खुशी दूबे को जेल में बंद रखना, खासकर ब्राह्मण समुदाय इसलिए भी लामबंद है कि बढ़ते बेरोजगारी और महंगाई में  योगी  सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रही । भाजपा शीर्ष नेतृत्व पेशोपेश में है । विकल्प कई है किन्तु कुछ विकल्प बहुत ही संदेहास्पद है जैसे केशव प्रसाद मौर्य को शुरू से ही मुख्यमंत्री बनने की लालच ही उन्हे भाजपा में खींच लाई किन्तु उन्हें आगे करके भाजपा बेरोजगार नवयुवकों के विरोध को नहीं झेल सकती क्युकी केशव प्रसाद कभी धरना प्रदर्शन कर रहे 2012 टीईटी न्यू एड बेरोजगारों के साथ धरने पर बैठ कर उनसे वादा किए थे कि भाजपा की 2017 में सरकार बनते ही उन्हें बहाल करवा कर नौकरी दिलवाएंगे । दिनेश शर्मा ने तो अपने भाई के नियुक्ति मामले में घिर कर पूरे सरकार की छीछालेदर करवा चुके है । कांग्रेस से भाजपा में आए जितिन प्रसाद और सिंधिया को उत्तर प्रदेश में आगे करने का मतलब अंदरूनी कलह मचेगा । अब केवल एक चेहरा ऐसा है जिसे थोड़ा बहुत पसंद किया जा सकता है वो है गोरखपुर से ब्राह्मण सांसद और योगी जी के परम अनुयाई , भोजपुरी एक्टर और नेता रवि किशन जी  । भाजपा में बेहद सक्रिय और लोकप्रिय नेता रवि किशन को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री घोषित करके एक साथ दो दाव खेल सकती है  जिसमें एक तो रवि किशन योगी जी के नजदीकी है दूसरे तगड़े ब्राह्मण चेहरा है जिससे बिगड़ते उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्थायित्व मिल सकती है ।

                 यूपी बीजेपी के कुछ नेताओं के पहले नाम बता दूं, मुरली मनोहर जोशी, कलराज मिश्र, रीता बहुगुणा जोशी, महेंद्रनाथ पांडेय, महेश शर्मा, लक्ष्मीकांत वाजपेयी, दिनेश शर्मा, बृजेश पाठक, रमापति राम त्रिपाठी, शिवप्रताप शुक्ला। इन सबमें कॉमन ये है कि ये सब ब्राह्मण हैं और सब जाने-पहचाने नाम हैं, कोई मंत्री है, सांसद है, डिप्टी सीएम हैं, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष हैं, बाकी विधायक तो हैं ही, जो इस लिस्ट में नहीं हैं। ऐसे में एक सवाल सबके मन में उठ रहा है कि थोक के भाव ब्राह्मण नेताओं वाली पार्टी को एक ऐसी पार्टी जिसका पूरे प्रदेश में सबसे कम जनाधार है, उसके एक ऐसे नेता को आयात करने की क्यों ज़रूरत पड़ गई, जो सांसद से लेकर विधायक तक का चुनाव हार चुका है? खोदा पहाड़ निकली चुहिया वाली हालत थी जब घंटों ये अटकलें चलती रहीं कि कांग्रेस का एक बड़ा नेता बीजेपी में शामिल होने वाला है और बाद ये बड़ा नेता जितिन प्रसाद निकले। अगले साल चुनाव हैं, ऐसे में ये दलबदल या भविष्य में होने वाले ऐसे ही पालाबदल को लेकर किसी के मन में कोई हैरानी तो नहीं होती, लेकिन जितिन प्रसाद को ज़रूरत से ज्यादा तवज्जो मिलने से माहौल ज़रूर बना दिया गया। पीयूष गोयल, जे पी नड्डा और फिर अमित शाह से मुलाकात और तस्वीरों से ये संदेश दिया गया कि जितिन प्रसाद वाकई कोई कद्दावर, दमदार ब्राह्मण नेता हैं। इतना ही भर मकसद भी है बीजेपी का कि दोबारा हम ही आ रहे हैं इसलिए विपक्षी टूटकर हममें आ रहे हैं और ब्राह्मण तो हमारे हैं ही तभी आ रहे हैं।जितिन प्रसाद की एकमात्र उपलब्धि ये है कि वो जाति से ब्राह्मण हैं, जिन्हें परिवारवाद की राजनीति ने थाली में सजाकर कद और पद दिया था। दादा ज्योति प्रसाद और पिता जितेंद्र प्रसाद दोनों कांग्रेस नेता थे और यही वजह थी कि 2004 में पहली बार सांसद बनने वाले जितिन प्रसाद चार साल के भीतर ही केंद्रीय मंत्री बन गए। पिता राजीव गांधी के सलाहकार थे तो पारिवारिक लिमिटेड पार्टी कांग्रेस ने बेटे पर भी उपकार कर दिया वर्ना सैंकड़ों कांग्रेसी सांसद हैट्रिक लगाने के बाद भी मंत्रिपद की शपथ नहीं ले पाए क्योंकि परिवार के करीबी न बन पाए।

               मैं ये बात इसलिए बता रहा हूं ताकि आप ये समझ सकें कि जितिन प्रसाद का कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल होना कोई गर्व की बात नहीं है, बल्कि ये अवसरवाद को प्रोत्साहन देना मात्र है। ऐसे नेता किसी दल की विचारधारा से प्रभावित होकर दलबदल नहीं करते, बल्कि अपना स्वार्थ देखकर आते हैं, जिसने पहचान दी, जो उसका न हुआ वो भरी जवानी में गोद लेने वाले का क्या होगा? डूबते जहाज में कोई नहीं रहना चाहता और जितिन प्रसाद जैसे नेता, जो विधायक तक का चुनाव नहीं जीत पाते, वो खुद की अनदेखी का आरोप लगाएं, महत्व न मिलने की बात कहें तो हास्यास्पद लगता है। इनके दावे में दम तब दिखता जब ये खुद को साबित करते और फिर कहते कि मेरी कोई नहीं सुन रहा, जैसे कि सचिन पायलट। सचिन पायलट की नाराज़गी को लेकर उनके बीजेपी में शामिल होने की अटकलें भी सियासी चर्चा का गरम मुद्दा रहा। पायलट कोई पहली बार नाराज़ नहीं हुए हैं, ये नाराज़गी अशोक गहलोत के खिलाफ है और ये सहज है। सरकार हो या कोई संस्थान, अपनी पारी खेल चुके कुछ बुजुर्ग कद्दावर शख्सियतें कुर्सीमोह में ये भूल जाती हैं कि अगला बल्लेबाज़ भी गलव्स, पैड पहनकर हाथ आजमाने को तैयार है तो मौका उसे भी देना चाहिए। थका हुआ नेतृत्व हटेगा तभी तो नया नेतृत्व कुछ जोशीले प्रयोग करेगा, हाथ खोलकर खेलेगा तो अच्छे स्कोर स्कोरबोर्ड पर टांगेगा, लेकिन ना खेलब ना खेले देब की सोच के साथ सत्तर पार वाले भी सत्ता से चिपके रहेंगे तो फिर क्षमतावान युवाओं के सामने बगावत के सिवा क्या विकल्प बचता है? सचिन सिंधिया नहीं हैं, ये पहले भी साबित कर चुके हैं, लेकिन हिमंता जैसे कांग्रेस नेता को बीजेपी ने मुख्यमंत्री बनाकर ये धारणा भी तोड़ दी है कि आयातित नेता का इस्तेमाल सिर्फ विरोधी खेमे में सेंधमारी के लिए होगा, कमज़ोर करने के लिए होगा। अब पायलट के सामने बिल्कुल साफ विकल्प हैं, या तो कांग्रेस उन्हें गहलोत की जगह मुख्यमंत्री बनाए वर्ना यही विकल्प बीजेपी दे तो वहां भी जा सकते हैं। रही बात कांग्रेस को झटके की तो यूपी में कांग्रेस की जो स्थिति है, उसमें न कोई झटका है और न हलाल, इसलिए जितिन के रहने या जाने से कोई फर्क नहीं पड़ना है, लेकिन अगर सचिन पायलट निकल लिए तो राजस्थान में इतना बड़ा झटका लगना है जो पार्टी को इस प्रदेश में हलाल और बीजेपी को मालामाल कर देगी।

                 — पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर ।

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