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चेतना के फूल

चेतना के फूल तभी खिले जब सर्वस्व चढ़ाया है

भानु का तांडव जारी फिर भी अंतरमन प्रेम से नहाया है

कोई तो बात होगी सावन की फुहार में जो कीचड़ में भी कमल खिलाने की संभावनाओं को प्रकट करती है।दृष्टि हो तो सृष्टि बदल जाती है वर्ना सदियों के फेरों में उम्र निकल जाती है।जब-जब सामाजिक समस्याओं ने मानवता पर प्रहार किए हैं, तब-तब अँबर ने साहित्यिक सुधा के उपहार दिए हैं।

समाज में व्याप्त कुप्रथाओं के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से तप्त धरती को अपनी साहित्यिक गंगा से भिगोने वाले उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद जी की क़लम से बहती फुहार और शिव महिमा के पावन सावन की बहार मानव जाति के लिए दोहरा मांगलिक सुअवसर लाई है।

आत्मा की रक्षा करना सर्वोपरि है

– मुंशी प्रेमचंद

आज का मानव बाहरी विकास की सीढ़ियाँ तो चढ़ रहा है लेकिन आंतरिक ज्वालामुखी पर किसी का भी कोई नियंत्रण नहीं है।उन्नति और सम्मान के जो साधन सत्य और अहिंसा की फुलवारी में अंकुरित हुए थे उस हरियाली में स्वामित्व की दीमकों ने सेंध लगा दी है।स्वाधीन आत्माओं में पराधीनता के लक्षण दिखाई देने लगे हैं।चेतन सत्ता के विरूद्ध बहती धारा तो समूची सभ्यता को ही ले डूबेगी।

कोई किसी के खेत पर दांव न लगाता, सब कौल कर लेते

तेरी-मेरी के फ़साद न होते,साझे चूल्हों का माहौल कर लेते

31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद जी का जन्म हुआ था।रहती दुनिया तक अमर रहने वाली इस महान आत्मा को नमन।इस युग प्रवर्तक रचनाकार की लेखनी में तत्कालीन इतिहास की गवाही है।तिलस्मी रईसी के मुखौटे उतारने वाले इस महान पुरोधा ने जन साधारण की वास्तविक वेदना का महायज्ञ जिया है।

देखो तो मेल मिलाप का अंतर

ताल्लुक़ लुप्त मगर संपर्क निरंतर

मानव जीवन के विविध पक्षों और समस्याओं का यथार्थ चित्रण करती प्रेमचंद जी की लेखनी ने समाज को अपने आंतरिक दोषों से मुक्त होने का सुझाव दिया है,लेकिन अपने अंदर संभावित कमल को खिलने से रोक लगाने वाला तत्व मानव जाति का अपना ही अहंकार रहा है।

हिंसक गतिविधियाँ शिक्षा का दोष नहीं देश का अभाग है

परस्पर-भेदभाव ने भड़काई ईर्ष्या द्वेषी क़ातिलाना आग है

आँख के बदले आँख निकालने की चेष्टा में सारी मानव जाति के अँधेपन का ख़तरा चरम पर है।एक दूसरे को सुख का साधन समझने की धारणा ने मानव जाति को भिक्षा पात्र के रूप में गढ़ दिया है।अनश्वर अक्षयपात्र में छिपी निःस्वार्थ प्रेम की संपदा का साम्राज्य आज अपने ही मनोविकारों से पराजित होने लगा है।

अपने विलास की धुन

लगाती है आचरण में घुन

तीर्थ यात्राएँ कब किसी को तीर्थंकर से मिलवाती हैं।जब प्रेम दीप जले हृदय में तो आराधना कुबूल हो जाती है।दूसरों के सामने प्रेम की भिक्षा मांगना बंद कर के अपने अंदर के प्रेम को बाँटना होगा, तभी तो इश्क़ इब़ादत में रूपांतरित हो पाएगा।

श्रद्धा और प्रेम के प्रमाण का दिखावा नहीं हो सकता

केवल रब की रज़ा पर हंस कर सर झुकाना होता है

सावन तो मानसिक अवस्था है आंतरिक उल्लास की

परस्पर प्रेम की फुहारों से हर रूह को भिगाना होता है

शास्त्र पढ़ने से नहीं शास्त्र को अपने आचरण में समाहित करने से समाधि घटित होती है। भगवा कपड़े पहन लेने से मन केसरी नहीं हो जाता।

विचार और व्यवहार में अंतर

कैसे होगा आचरण रूपांतर

मनुष्यता दरिद्र न होने पाए इसका प्रयास मनुष्य को ही करना होगा।प्रेम पाना तो हर किसी का सपना है जो एक दिन टूट जाता है, अगर खुद ही प्रेम बन जाओ तो प्रेम माँगने का मोह छूट जाता है।जो मेहनत बांट कर फूल खिलाने में लगती उसे माँगने में गँवा कर मानसून का इंतज़ार करने से सावन कभी नहीं आता।

एक टुकड़ा धूप करोड़ों आलसियों की तलाश

मेहनत का पसीना नहीं फिर खिलें कैसे पलाश

ख़ाली मुट्ठी को धन से भरने की कोशिश करने वाले ख़ाली रह जाते हैं और दोनों मुट्ठी खोलकर बाँटने वाले जीवन के महायज्ञ की सफलता का शिखर छू पाते हैं।चुनाव सबका अपना। माँगने का पात्र बनें या खुद को माँज कर बाँटने का उपकरण बन जाएँ और हर लम्हा सावन की फुहार से अपनी अंतर आत्मा को भिगाएँ।

प्रेम ही सत्य का द्वार है

प्रेम ही सावन की फुहार है

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