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जी हाँ, दिल्ली जीत गई

मनमोहन शर्मा ‘शरण’ (संपादक -उत्कर्ष मेल)

चुनाव आते हैं, चले जाते हैं । एक्जिट पोल हो–हल्ला और परिणाम के बाद शांत होकर कहीं मंथन, कहीं चिंतन होता और जिंदगी अपनी वही रफ्तार पकड़ लेती है । विभिन्न राज्यों में चुनाव होते हैं किन्तु उनकी जीत–हार के मायने पार्टी–क्षेत्र् की जनता तक सीमित होते है । लेकिन चुनाव जब दिल्ली की हो तो बात कुछ और होती है । एक तो यह मिनी इंडिया है, यहां लगभग सभी राज्यों के लोग रहते हैं । दूसरा 2014 चुनाव के बाद से जो राजनीति ने करवट ली, कांग्रेस पतन की ओर बढ़ने लगी और मोदी–शाह को अपराजित–अद्वितीय–अजेय जोड़ी के रूप में देखा–बताया जाने लगा, जिसका एक कारण यह भी रहा कि विपक्ष में कोई ऐसा नेता नहीं नजर आ रहा था कि इनका डटकर मुकाबला करने के साथ–साथ सारे विपक्ष को एकजुट रख सके ।
दिल्ली विधानसभा चुनाव बीजेपी यमोदी–शाहद्ध के लिए अनेक चुनौतियां लेकर आया । क्योंकि पहले ही अनेक राज्य गंवा बैठी थी और दिल्ली में क्षेत्रीय पार्टी जिसका जन्म ही कुछ वर्ष पूर्व हुआ हो, उससे दो–चार होना कठिन कहें, या दूर की कोड़ी इसलिए लग रहा था क्योंकि एक तो इन पर भ्रटाचार का कोई गंभीर आरोप नहीं है और दूसरा जनता का बिजली–पानी–शिक्षा की सेवाओं पर संतुष्ट होना था । मुख्य मुद्दों से हटकर शाहीनबाग ही प्रमुख मुद्दा बना रहा । बद्जुबानी और नफरत के नारे दिल्ली वासियों को कतई पसंद नहीं आए । बावजूद इसके कि बीजेपी ने अपनी पूरी ताकत दिल्ली में झोंक दी, क्या सांसद, मंत्र्ी, अन्य राज्यों के जिनके उनकी सरकार है वहां के मुख्यमंत्री, गृहमंत्री तथा प्रधानमंत्री तक ने जनसभाओं में अपनी भागीदारी कर दमखम दिखाया परन्तु दिल्ली वासियों ने ‘आप’ को स्पष्ट बहुमत देकर अपनी मंशा बता दी कि भारत के संस्कारों और संस्कृति में ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का नाद है, नारा है । इस नारे की कोई सीमा नहीं, पूरे विश्व के प्राणियों के प्रति सुखी होने की भावना है ।
देश की राजनीति में एक नई आशा के रूप में परिणाम उभर कर आए और मानों निराश हो चुके विपक्ष को संजीवनी मिल गई हो कि बातों से कब बात बनी है, इरादे नेक हों, कड़ी मेहनत हो तथा जनता का आशीर्वाद हो तो फिर कोई भी ताकत आपके समक्ष टिक नहीं सकती ।

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