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तेरी रचना का ही अंत हो न

(कविता मल्होत्रा)

कैसी विडँबना है, हर कोई अपनी-अपनी स्वार्थ सिद्धि

की चाहत लिए अपना स्वतंत्र आकाश चाहता था और आज अधिकांश लोगों को दो गज ज़मीन भी नसीब नहीं हो रही।

अभिव्यक्ति की आज़ादी वाले देश में तमाम सीमाएँ लाँघने वाली समूची अवाम का अपनी भाषा पर ही

अधिकार नहीं रहा, जो निशब्द होकर कोष्ठकों में बंद है, मानवता हाशिए पर खड़ी है, आचरण पर

प्रश्नचिन्ह लगे हैं और पूर्णविराम विनाश की कगार पर खडी सृष्टि की परिधि में अपना अस्तित्व तलाश रहे हैं।

महल उदास और गलियाँ सूनी, चुप-चुप हैं दीवारें

दो गज ज़मीन भी नसीब नहीं,हैं हर तरफ चीत्कारें

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प्राकृतिक संपदाओं पर स्वामित्व के मसलों पर परस्पर झगड़ती हुई मानव जाति को प्रकृति ने ही अपना हाथ खींच कर मानव को उसकी औक़ात दिखा दी है।इस प्राकृतिक आपदा के बावजूद –

हर तरफ ज़ुल्म है बेबसी है

सहमा-सहमा सा हर आदमी है

पाप का बोझ बढ़ता ही जाए

जाने कैसे ये धरती थमी है

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महामारी की चपेट में आकर भी लोगों का लोभ नियंत्रित नहीं हो रहा।कहीं दवाइयों के नाम पर ठगी की जा रही है तो कहीं प्लाज़्मा और ऑक्सीजन के नाम पर लूटपाट हो रही है।और तो और शव वाहक वाहनों और शमशान में अंतिम क्रियाओं के लिए भी जम कर एँट्री फ़ीस के नाम पर वसूली की जा रही है।इससे भयानक मंजर और क्या होगा कि अभिभावक अपने बच्चों की चिंताओं को अग्निदान दे रहे हैं।

अगर अब भी मानव जाति को अपने जीवन का उद्देश्य समझ नहीं आया तो शायद प्रकृति उसे दोबारा ये अवसर न दे, क्यूँकि यही हो समय है जब प्रकृति ने ये स्पष्ट कर दिया है कि मानवता धर्म-कर्म के मुद्दों से बहुत परे है।

आज बुझती साँसों को जीवन देने के लिए किसी प्लाज़्मा डोनर के धर्म या जाति के प्रमाणपत्र नहीं चल रहे।चल रहा है तो महज़ इँसानियत का सिक्का, जिस पर लोभ की काई जमी थी।

आज हर व्यक्ति की परम पिता से केवल एक ही अरदास है कि अपनी करूणा की बौछार से धरती के पापों को धो डालें और समूची सृष्टि में परस्पर प्रेम की उर्जा का विकास करें।

मानव संगठित प्रार्थनाओं के स्वर ईश्वर के द्वार पर पहुँचाने का प्रयास तो कर रहा है मगर स्वँय संयमित जीवन शैली का चयन नहीं करना चाहता।

सबसे पहले अपने स्वार्थ त्यागने होंगे, और सारी सृष्टि को एक परिवार की हैसियत से सहयोग देना होगा, तभी प्रकृति के ऋण से मुक्ति मिल पाएगी, जिसे मानव जाति अब तक नजरअँदाज करती आई थी।

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मौसम तो मिज़ाज बदलता रहेगा

सूरज भी नित उदित हो ढलता रहेगा

मौन मानव चेतावनियाँ निगलता रहेगा

तो रेतीला वक्त हाथ से फिसलता रहेगा

बुझती साँसों को लौ देकर जो जलता रहेगा

वही जीवन सार्थक जो शमा बन पिघलता रहेगा

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क्यूँ चाहिए किसी को भी अपने ऊपर ऐसी कोई हुकूमत जो डंडे के ज़ोर से मानव जाति को उसके धर्म-कर्म समझाए और क़ानूनी कार्यवाहक बना कर परस्पर संग्राम को बढ़ावा दे।

क्यूँ चाहिए किसी को भी ऐसी सल्तनत जिसकी नींव में लोगों के अधिकार दफ़न हों!

क्यूँ नहीं समझना चाहता मानव कि पानी का एक बुलबुला है मानव जीवन जो किसी बुझती साँस के लिए भाप बनकर नवजीवन का निर्माण भी कर सकता है और अभिशाप बनकर मानव जीवन का अपमान भी, चयन सबका अपना है।

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बोतल बंद कर डाला नीर

एक बूँद करूणा को अधीर

हवाओं को भी कर डाला क़ैद

सिलेंडरी ऑक्सीजन देते वैद्य

कहाँ चला खोटे सिक्कों का शोर

है हर तरफ़ अमानवीयता घनघोर

संभल जाएँ अब भी अगर बन माली

महकेगा चमन अग़र उगाएँ ख़ुशहाली

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