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दरिया ए इश्क-इब़ादत की मुश्क

कविता मल्होत्रा

प्रेम है दरिया आग का,उल्टी है इसकी धार

जो उतरा सो डूब गया,जो डूब गया वो पार

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अपनी दृष्टि को विस्तार देकर ही सृष्टि के आधार को समझना सँभव है, वर्ना दृष्टिकोण के अभाव में तो शिक्षित लोग भी अशिक्षितों जैसा व्यवहार करने लगते हैं।

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जैसे तुम सबके वैसे ही मैं तुम्हारा हूँ

तेरी कृपा से ऊँचा उड़ूँ वर्ना बेदम ग़ुब्बारा हूँ

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अपने ईश्वर के प्रति यही समर्पण भाव मानव जाति के उत्थान का एकमात्र समीकरण है, जिसे सुलझाने के लिए मानव आजतक प्रयासरत है।

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क्षितिज रचता रोज़ स्वयंवर

सुनो क्या कहते अवनि अँबर

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केवल एक दूसरे को पा लेना ही प्रेम नहीं बल्कि एक दूसरे के भिन्न अस्तित्व को अपनी अभिन्नता से पूर्णता देकर एक दूसरे के लिए एक दूसरे के साथ अडिगता से खड़े रहना ही निस्वार्थता की प्रवृत्ति है।

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कब कहा अवनि ने अँबर से तुम सिर्फ मेरे हो

न कहे अँबर अवनि से क्यूँ समूचा विश्व घेरे हो

सबको कहती है प्रकृति मैं बँधुत्व का चौबारा हूँ

कहो एक दूजे से जैसे रब सबका वैसे मैं तुम्हारा हूँ

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मानवता का उत्थान ही मानव की पहचान बन जाए तो फिर से सोने की चिड़िया अपना हिंदुस्तान बन जाए।

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उगता सूरज लाया सँग

नवजीवन के नवीन रँग

मन में भरकर नई उमँग

सुनो अँतरमन के मृदँग

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मानव सदियों से अपने-अपने पूर्वजों के कहे अनुसार और अपनी खोजों के परिणामस्वरूप अपने-अपने ढँग से अपने-अपने रब की इब़ादत करता रहा है।किसी ने चारदीवारी में रब पूजा, किसी ने प्रतिमाओं में रब को तलाशा तो किसी ने तीर्थ स्थानों में रब के दर्शन किए।रास्ते सबके अलग-अलग रहे लेकिन मँज़िल भी एक और मक़सद भी एक।

माँ शारदे की आशीष स्वरूप जिसने अँतरमन में ज्ञान दीप जलाए वो ज्ञानार्जन की राह पर चल पड़ा और ज्ञान का दान भी करने लगा, जो सबसे उत्तम दान माना जाता है।ये वो पूँजी है जिसे कोई चुरा भी नहीं सकता।

बसँत पँचमी का आगमन एक नयी सुबह का सँदेश लाता है।उगते सूरज की लालिमा जब फसलों पर पड़ती है तो सारी सृष्टि धानी चूनर ओढ़े प्रतीत होती है।बाहरी ख़ूबसूरती का आनँद उठाने के साथ-साथ जो प्रभु के प्यारे, हर इँसान में रब के दर्शन करके अपनी अंतर्दृष्टि के उत्थान की राह पकड़ते हैं, उनकी आराधना भी सफल होती है और जीवन की साधना भी।

“माना कि परिस्थितियाँ मानव के नियंत्रण से बाहर हैं लेकिन हमारा आचरण तो हमारे ही नियंत्रण में है”

– अज्ञात

हर मौसम का समभाव से स्वागत करना ही रब की रज़ा में रहने का साक्षात उदाहरण है।प्रकृति के असँतुलन में मानव जाति का बहुत बड़ा हाथ है।ये बात और है कि अपने-अपने स्वार्थ साधते प्रत्येक वर्ग के पास अपनी-अपनी दलीलें भी हैं।

प्रकृति की सहनशीलता का ग़लत अर्थ लगाने वाले मूर्ख

शेखचिल्लियों का तो एक वर्ग ऐसा भी है जो बदली के कारण सूरज न निकलने पर सूरज के प्रति भी अनेक प्रकार के दोषारोपण किया करते हैं और उजाले के लिए उधार के दीप जला कर अपनी ही शेखिंयाँ बघारने से बाज नहीं आते।

करोना-काल समूचे विश्व के लिए एक शिक्षा पुँज बनकर उभरा जिसने शिष्यता के दामन में बहुत से सितारे टाँके हैं।जिन्हें अपने ही गुरुत्व का ग़ुरूर है, उस वर्ग के लिए हर प्राकृतिक आपदा एक अनसुलझा समीकरण है, जिसे केवल अपनी अंतर्दृष्टि के दिव्य दृष्टिकोण से ही सुलझाया जा सकता है।

पूरा वर्ष थोड़ी सी पूँजी से दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ करते हुए गुज़र गया।बड़ी-बड़ी सल्तनतों के सम्राट सड़क पर आ गए और प्रकृति जिस पर मेहरबान हुई उसकी चाय की दुकान भी वैभवपूर्ण राजसी सत्ता में तब्दील हो गई।सफलता के मायने आज भी निस्वार्थता के ही पर्याय हैं।शिक्षा का उद्देश्य और लक्ष्य एक ही है – मानव जीवन के उद्देश्यों को समझ कर वास्तविक पूजन को अँजाम देना।

केवल पूजा स्थलों की यात्राएँ कभी इब़ादत का रूप नहीं से सकतीं।केवल चँद शब्दों का उच्चारण किसी का दृष्टिकोण नहीं बदल सकता।केवल कर्मकाण्डी व्यवहार कभी रब के दरबार में नहीं सराहे जाते।वहाँ के ताले तो केवल निस्वार्थ प्रेम की कुंजी से ही खुलते हैं इसलिए मानव जाति का ये सर्वोच्च दायित्व भी है और कर्तव्य भी कि वो समूची सृष्टि में रब को देखे और निस्वार्थ सेवाओं के रास्ते हर जीव के प्रति करूणा रखकर प्रेम के दीप जलाए और माँ शारदे के पूजन के अधिकारी बनें।

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कब कहा चाँद सूरज ने

उजाले का मैं हूँ उद्‌गम

कब मिलते अवनि अँबर

क्षितिज रचे रोज़ स्वंयवर

न माँगें कीमत हवा पानी

है सहज सुलभ गुरू बानी

अग्नि की सीख-समाहित

प्रकृति का उद्देश्य जनहित

निस्वार्थता ही क्यूँ दुश्वार

उत्पत्ति का बीज ही प्यार

पँच तत्वों की सुनें पुकार

मधुरता जीवन का आधार

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