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धनाढ्य परिवारों को मिलने वाला आरक्षण गंभीर विषय है!

सामान्य वर्ग के लोग गांवों से रोजगार और बेहतर जीवन की खोज में महानगरों में धक्के खाते है , मजदूरी करते है और आरक्षण के विषबेल में लिपटा संविधान उनकी सुधी नहीं लेता क्योंकि वो सामान्य श्रेणी से है और महानगरों में कमा रहे । वहीं तुलनात्मक रूप से अधिक धनाढ्य पिछड़े और दलित  सुविधायुक्त होकर शहरों में आते हैं जमीन खरीदते है और व्यापार करते है पर फिर भी राजनीतिक पार्टियां उन्हे आरक्षण देने के लिए एक दूसरे पर चढ़ी रहती है । सामान्य जाति के लोग अपनी कमाई का एक हिस्सा गांवों में अपने परिवार को भेजते हैं। यह वैश्विक मापदंड भी है कि जैसे-जैसे विकास होता है, ग्रामीण क्षेत्रों का अनुपात सिकुड़ता है।अमेरिका जैसे विकसित देश में केवल 10 प्रतिशत श्रमिक आबादी सीधे कृषि से जुड़ी है, जिनका योगदान उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में पांच प्रतिशत से अधिक है। भारत में यह स्थिति बिल्कुल उलट है। सात दशक बाद भी देश के कुल श्रमिकों में से लगभग 50 प्रतिशत आज भी कृषि आधारित रोजगार से संबंधित हैं, जबकि जीडीपी में उनकी हिस्सेदारी मात्र 15-17 प्रतिशत है। स्वतंत्रता के समय यह अनुपात 50-70 प्रतिशत था।  यह स्थिति तब और बिगड़ी हुई दिखती है, जब कृषि प्रधान देश होने के बाद भी हमारा कृषि आयात प्रतिवर्ष एक लाख करोड़ रुपये से अधिक है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बदलते समय के साथ परिवर्तित आदतों ने विभिन्न प्रकार के ताजा और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पादों की मांग को कई गुना बढ़ा दिया है, जिसकी पूर्ति हेतु देश के किसान प्रोत्साहित नहीं हो रहे हैं। हमारे देश में किसान चावल और गेहूं इतनी मात्रा में उगाते हैं कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा देश में करोड़ों लोगों को उसकी मुफ्त आपूर्ति के बाद भी भारत लाखों टन अनाज निर्यात कर रहा है और इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह बेमतलब का दिया जाने वाला आरक्षण है । हमें आरक्षण से तब कोई आपत्ति नहीं है जब यह योग्य दलित को मिलती है । समस्या तो तब  है कि जब जिसको आरक्षण दिया जा रहा है , वो कभी भी  सामान्य आदमी क्यों  बन ही नहीं पा रहा है ! सोचे सुप्रीम को और  सीमा तय हो कि वह आरक्षण लेने के बाद  सामान्य नागरिक क़ब तक बन जायेगा ? किसी व्यक्ति को आरक्षण दिया गया और वो किसी सरकारी नौकरी में आ गया ,अब उसका वेतन ₹5500 से ₹50000 व इससे भी अधिक है , पर जब उसकी संतान हुई तो वह भी कैसे  पिछडी और आर्थिक कमजोर  ही पैदा हुई ,ये सोचे सुप्रीम कोर्ट !

         आरक्षण लेकर एक लाख वेतन लेने वाले के बेटे का जन्म हुआ प्राईवेट ए सी अस्पताल में ,पालन पोषण हुआ राजसी माहोल में ।फिर भी वह गरीब पिछड़ा और सवर्णों के अत्याचार का मारा  हुआ ? उसे आगे चलकर आरक्षण मिलेगा ,मतलब कुछ भी हो राजनीति के नाम पर । उसका पिता लाखों रूपए सालाना कमा रहा है , तथा उच्च पद पर आसीन है ।सारी सरकारी सुविधाएं  ले रहा है ।वो खुद जिले के सबसे अच्छे स्कूल में पढ़ रहा है , और सरकार  उसे पिछड़ा मान रही है उसे वजीफा दे रही  । वर्षो से सवर्णों पर ये अत्याचार हो रहे और उन्हें आरक्षण  का शिकार बना  रही  है  राजनीति ! आपको आरक्षण देना है , बिलकुल दो  पर उसे नौकरी देने के बाद तो  सामान्य बना दो ! ये गरीबी ओर पिछड़ा दलित आदमी होने का तमगा तो हटा दो ! यह आरक्षण कब तक मिलता रहेगा उसे ? इसकी भी कोई समय सीमा तय कर दो ? या कि बस जाति विशेष में पैदा हो गया  तो आरक्षण का हकदार हो गया , और  वह कभी सामान्य नागरिक नही होगा ! दादा जी जुल्म के मारे । बाप जुल्म का मारा  अब … पोता भी जुल्म का मारा ! आगे जो पैदा होगा वह भी जुल्म का मारा ही पैदा होगा ! ये पहले से ही तय कर रहे हो । वाह रे मेरे देश का दुर्भाग्य ! जिस आरक्षण से उच्च पदस्थ अधिकारी , मन्त्री , प्रोफेसर , इंजीनियर, डॉक्टर भी पिछड़े ही रह जायें, गरीब ही बने रहेंगे जऐसे असफल अभियान को तुरंत बंद कर देना चाहिए ! क्या जिस कार्य से कोई आगे न बढ़ रहा हो  उसे जारी रखना मूर्खतापूर्ण कार्य नहीं है ? हम में से कोई भी आरक्षण के खिलाफ नहीं,  पर आरक्षण का आधार जातिगत ना होकर ,आर्थिक होना चाहिए ! सबका साथ सबका विकास अन्त्योदय योजना लाओ। अंत को सबल बनाओ !और तत्काल प्रभाव से प्रमोशन में आरक्षण तो बंद होना ही चाहिए ! नैतिकता भी यही कहती है , और  संविधान की मर्यादा भी ! क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी मंदिर में प्रसाद बँट रहा हो तो  एक व्यक्ति को चार बार मिल जाये ,और  एक व्यक्ति लाइन में रहकर अपनी बारी का  इंतजार ही करता रहेगा ? आरक्षण देना है तो उन गरीबों ,लाचारों को चुन चुन के दो जो बेचारे दो वक्त की रोटी को मोहताज हैं… चाहे वे अनपढ़ ही क्यों न हों ! चौकीदार , सफाई कर्मचारी ,सेक्युरिटी गार्ड  कैसी भी नौकरी दो ! हमें कोई आपत्ति नहीं है और ना ही होगी ! ऐसे लोंगो को  मुख्य धारा में लाना  सरकार का सामाजिक व नैतिक उत्तरदायित्व भी है ! परन्तु भरे पेट वालों को बार बार 56 व्यंजन परोसने की यह नीति बंद होनी ही चाहिए ! जिसे एक बार आरक्षण मिल गया , उसकी अगली पीढ़ियों को सामान्य मानना चाहिये और आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिये !                     

पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर

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