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नारी (कविता-7)

हम नारी आज की हो या कल की

सब को साथ लेकर चलती हैं 

 अपने सच्चे मन से बड़े जतन से

 खेल गुडिया का हो या

 हो प्रसाद की पुडिया

 मायेका हो या ससुराल

 सब कुछ साँझा करती हैं

प्यार , दुलार या हो उपहार

 खुद अपने लिए छाटती नहीं

 काट  -छाट से बचा

 रख लेती हैं

 बाँटती हैं सब कुछ

 माँ -बाप ,भाई के साथ 

बनकर दुल्हन जब जाती हैं ससुराल

 बाँटती हैं खुद को पति के साथ

 और बट जाती हैं

अनगिनत किरदारों में

 सास- ससुर, नन्द 

 कचरा उठाती बाई के साथ

बात हो सत्कार की बन जाती हैं

अन्नपूर्णा , लक्ष्मी

 इक पोल (खम्बा)की भांती निकलते

 अनगिनत तार जुड़े रहते हैं

 हम नारियों के अपनों से

 प्रवाहित करती रहेती है जिसमें

मां ,बहन, बेटी बन

 प्यार और स्नेह की ऊर्जा

अपनों से अपनों तक

हम नारी आज की हो या कल की

 ससम्मान आगे बढ़ती 

ज़िंदगी बिताने और 

ज़िंदगी जीने के फ़र्क़ को 

समझती भी हैं और समझाती

बढ़ अति जब अन्याय की

 रौद्र रूप में अा जाए तो

हम नारी प्रहार भी हैं कर जाती

 क्यों कि नारी रूप में

  दुर्गा, काली हम ही हैं कल्याणी ।

मंगला रस्तौगी

नई दिल्ली खानपुर ।

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