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प्रदूषण भी दौड़ा दिल्ली की ओर !

देखिए जनाब दिल्ली की दौड़ का नायाब नमूना , पंजाब और हरियाणा की पराली का धूंआ भी दिल्ली की तरफ दौड़ रहा । पूरी दिल्ली और नोयडा एयर क्वालिटी इंडेक्स के गुस्से से थर थर कॉप रही । अभी कल ही अपने राजनीति के महान दिग्गज अभिनेता श्रीमान् केजरीवाल जी मिले मैंने पूछा सर दिल्ली की हवा खराब है आप मास्क वाली दिल्ली के मुख्यमंत्री है ,क्या आपको कुछ कहना है ? सर जी तपाक से बोले मोदी जी ने मशीने ही नही बाटी ! विजय गोयल इवेंन टर्म मे ऑड वाली गाड़ी लेकर निकल रहे सड़क पर जिससे पूरा वातावरण खराब हो गया है । जल्द ही शिशोदिया पर्यावरण को सम्हाल लेंगे पर मास्क अभी नही हटेगा और ना मेरा ये मफलर ।

 पर्यावरण मुद्दा क्यों बनती है और प्रदूषण मजबूरी क्यों ? और इसके सही कारण और रोकथाम के उपाय क्या हैं ? सबसे पहले तो आप थोड़ी जियाॅलोजिकल कंडीशन समझिये। सभी जगहें समान नहीं होतीं, भूमध्यरेखा पर या उसके इधर-उधर, पहाड़ों और मैदानी जगहों पर मौसम बिलकुल अलग हो सकता है  यानि इसे भारत के हिसाब से समझें तो धुर उत्तर में चूंकि पहाड़ी इलाका है तो वहां साल भर ठंडा मौसम हो सकता है। मानचित्र में थोड़ा नीचे उतर के आयेंगे तो मैदानी इलाका है जहाँ गर्मी और ठंड दोनों तरह का मौसम होता है और नीचे दक्षिण में इक्वेटर की तरफ चलेंगे तो साल भर गर्मी वाला मौसम मिलेगा। अब इसके साथ हवा और वातावरण का कांबीनेशन समझिये कि ठंडे वातावरण में हवा ठंडी होगी जो ऊपर नहीं उठती, जबकि गर्म जगह पर या गर्म हवा ऊपर चली जाती है। यहाँ हवा का विज्ञान समझना इसलिये जरूरी है कि प्रदूषण के स्तर में यही चीज सबसे प्रभावी होती है। इसे दिल्ली और मुंबई के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। मुंबई दिल्ली से कम प्रदूषण नहीं जनरेट करती, लेकिन वहां दिल्ली जैसा मौसम नहीं होता तो यह समस्या इतना विकराल रूप नहीं धारण करती। इसके उलट दिल्ली लखनऊ जैसे ठंड के मौसम से दो चार होने वाले सभी मैदानी इलाके अक्तूबर से फरवरी तक बुरी तरह इसकी चपेट में रहते हैं। सभी बड़े शहरों में हर तरह का वायू प्रदूषण, चाहे वह फैक्ट्रियों से हो रहा हो, कंस्ट्रक्शन से हो या आतिशबाजी से हो, लगातार बारहों महीने रहता है लेकिन जहाँ गर्मियों में हल्के वातावरण में वह ऊपर उठ जाता है तो इतना परेशान नहीं करता, वहीं इन ठंडे महीनों में एकदम ऊपर नहीं उठ पाता और नीचे ही नीचे फैलता है जिससे लोगों को इसका असर पता चलता है।

इसे ज्यादा बेहतर तरीके से समझना है तो शहरी आबादी से निकल कर गांव की तरफ इस मौसम में चले जाइये, जहाँ दूर तक देख सकते हों और किसी जगह पे आग जला दीजिये। आप पायेंगे कि आग से पैदा हुआ धुआं जो सामान्यतः ऊपर चला जाता था, इस मौसम में ऊपर न जा कर नीचे नीचे ही कई किलोमीटर तक फैल गया है, क्योंकि ऊपर जाने की गुंजाइश ही नहीं है भारी ठंडी हवा की वजह से। यही हाल शहरों में प्रदूषण का होता है।अब आइये इसपे कि दिवाली के बाद यह समस्या इतनी बढ़ क्यों जाती है । इसे एक दूसरे मोटे उदाहरण से समझ सकते हैं कि पानी का ब्वायलिंग प्वाइंट सौ डिग्री होता है, निन्यानवे तक नहीं उबलता लेकिन सौ पे उबल जाता है तो यही एक डिग्री सबसे महत्वपूर्ण है और यही एक डिग्री आतिशबाजी है जो ठीक इसी मौसम में होती है। प्रदूषण को इसी पानी के समकक्ष रखिये और समझिये कि गर्म जगहों के शहर छोड़ दीजिये क्योंकि उन्हें ठंडे वातावरण का सामना नहीं करना, बाकी ठंडी जगहों के सभी छोटे बड़े शहरों का पानी गर्म है लेकिन साईज की वजह से सबकी यह गर्माहट अलग-अलग है।

गांवों में पचास डिग्री, कस्बों में साठ, शहरों में अस्सी तो दिल्ली में आलरेडी निन्यानवे डिग्री गर्म है। दिवाली में होने वाली आतिशबाजी हर जगह इस पानी को एक से दो डिग्री गर्म कर देती है लेकिन चूंकि बाकियों की गर्माहट अभी ब्वायलिंग प्वाइंट से काफी नीचे है तो यह एक से दो डिग्री की बढ़ोतरी खास असर नहीं डालती लेकिन दिल्ली के लिये यही बढ़ोतरी आत्मघाती हो जाती है। ठंड के मौसम में आतिशबाजी से सिर्फ एक दिन में जनरेट होने वाला प्रदूषण दिल्ली ही नहीं, सभी शहरों को परेशान करता है लेकिन दिल्ली सबसे ज्यादा परेशान इसलिये होती है क्योंकि न सिर्फ उसका बल्कि उसके द्वारा जनरेट किये प्रदूषण का साईज आलरेडी क्रिटिकल होता है। जिन्हें लगता है कि यह समस्या पराली से होती है, वह खुद से सवाल करें कि पराली क्या सभी किसान दिवाली का मुहूर्त देख के जलाते हैं और हवा क्या किसी जादू से चारों दिशाओं से दिल्ली की तरफ बहती है? पूरा मैदानी इलाका चावल की खेती करता है, पंजाब, हरियाणा और यूपी, दिल्ली को चारों तरफ से घेरे हैं तो चारों तरफ जलने वाली पराली का धुआं क्या सिर्फ दिल्ली की ओर रुख करेगा, जबकि यूपी और पंजाब दिल्ली की दो विपरीत दिशाओं में हैं। यह ठीक है कि पराली ठंडे मौसम में वही स्मोक इफेक्ट पैदा करती है जिसका जिक्र ऊपर किया लेकिन प्रदूषण में इसकी हिस्सेदारी नाम की होती है। अब आइये इसपे कि इसकी रोकथाम कैसे की जाये.. तो ऐसा है भाई साहब कि औकात में रहते हुए आइना देखिये और समझिये कि यह आपके बस का नहीं। प्रकृति को पूजने का खम ठोकने वाले ही प्रकृति का सबसे ज्यादा सत्यानाश कर रहे हैं, यह अपनी जगह खरा सच है । जिस दिन प्रकृति को पूजने की मूर्खता छोड़ कर प्रकृति का सम्मान और संरक्षण करना सीख लेंगे उस दिन समस्या से भी मुक्ति पा लेंगे, फिलहाल तो गैर जरूरी परंपराओं के नाम पे हवा और नदियों, तालाबों, समंदर के पानी को प्रदूषित करते रहिये और रोने के बजाय इस प्रदूषण को एंजाय करना सीखिये, क्योंकि यह हम सब की ही देन है।

—- पंकज कुमार मिश्रा जौनपुरी

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