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मानव उत्थान के संकल्प से बेहतर कोई विकल्प नहीं

कविता मल्होत्रा

किसी भी देश की संस्कृति मन्नतों के धागों की आस्था पर नहीं बल्कि मानवीय उत्थान के संकल्पों पर चल कर ही दिव्यता की ओर अग्रसर होती है।

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बांधे इस बार आशीष का धागा

रहे न कोई भी मानव मन अभागा

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लगभग दो वर्ष से समूचा विश्व महामारी के विध्वंसक परिणामों की वेदना से व्यथित है।काल की गति बहुत तीव्रता से मानव जाति को मानवतावादी  पथ पर चलने को प्रेरित कर रही है।लेकिन एक विषमय विषाणु आज भी मानव जाति की सोच को संक्रमित किए हुए है, जो मानवता के पतन का एकमात्र कारण है।

अहँकार जो हर कोई एक दूसरे के व्यक्तित्व में तो देख पा रहा है और उसे अपनी पूरी ताक़त झोंक कर उजागर भी कर रहा है, लेकिन अपने अँदर का ये विषाणु किसी को भी दिखाई नहीं पड़ रहा।

चिकित्सकों की ज़रूरत ही वहाँ पड़ती है जहाँ असंयमित जीवनशैली के परिणाम स्वरूप देह का ताप मानव जाति को परेशान करता है।

अध्यापकों की ज़रूरत भी वहाँ पड़ती है जहाँ उच्च शिक्षित उपाधि होल्डर भी अपनी शिक्षा के अहम में किसी नानक या कबीर की प्रशंसा को हज़म नहीं कर पाते और अपनी राजनैतिक सोच से आज भी डिवाइड एँड रूल पॉलिसी अपना कर अपनी सत्ता के नशे में चूर होकर मानवता के पतन का सर्वोच्च विषाणु बने हुए हैं।

इँजीनियर भी आज क़ीमती पत्थरों और काँच के ख़ूबसूरत

जोड़ तोड़ से नवीनतम गृह निर्माण के शिल्पकार बने हुए हैं लेकिन सद्भावना और परस्पर सौहार्द के संबंध सबके शिल्प से नदारद हैं।

उन गणितज्ञों का तो हमारे देश के पतन में सबसे बड़ा हाथ है जो देय कर को अदेय राशि में इतनी चतुराई से बदलना जानते हैं कि भोले भाले लोगों के पास उनके आगे चुप्पी साधने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता।

समूची मानव जाति को प्रकृति के इशारों को पकड़ कर अपने ही अंदर छुपे हुए विषमय विषाणु को ध्वस्त करने का प्रयास करना होगा, तभी तो मानवता का उत्थान संभव हो पाएगा।

आजकल सबसे बड़ी विडंबना यही है कि हर कोई अपने पद पर प्रतिष्ठित रहना चाहता है लेकिन पंक्तिबद्ध काबिल इंसानों को उनके हक़ से वंचित करने के लिए अपनी लालसाओं को भी रिश्वतख़ोरी के बल पर तर्कसंगत तरीक़े से सही साबित करने में व्यस्त है ।

अगर हमारे देश की कुशाग्र बुद्धि का हुनर भ्रष्टता की पगडँडी पर चलने की बजाय बुद्धत्व हासिल करने का प्रयास करे तो स्थिति बेहतर हो सकती है। लेकिन हमारे देश का इल्म तो तिजोरियों में बंद है और सबकी ज़िंदगी की फ़िल्म चल रही है योग गुरूओं के गेरुआ वस्त्रों और जिम ट्रेनर्स के डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों की ख़रीद फ़रोख़्त के बाज़ारों में।

एक दूसरे पर दोषारोपण करती पीढ़ियाँ देश को उस शैक्षणिक शिखर तक कैसे पहुँचा पाएँगी जहाँ उपाधियाँ महज़ झूठी गवाहियों और तर्कसंगत हार जीत के फ़ैसलों पर नहीं बल्कि मानव से मानव के फ़ासलों के मसलों के सुलझाव पर आधारित होतीं हैं, वर्तमान स्थिति में तो इसकी कल्पना करना भी असंभव है।

किसी भी विषाणु के दैहिक सँक्रमण से मानव जाति को उतना ख़तरा नहीं है जितना ख़तरनाक आज वैचारिक विषाणु का संक्रमण साबित हुआ है।

ये केवल चिंता का ही नहीं बल्कि चिंतन का भी विषय है, जिसकी चिकित्सा शीघ्रातिशीघ्र होनी ज़रूरी है, तभी तो कृष्णायन घटित होगा।

क्या ज़रूरी है कि हर सदी में मानव अपनी संस्कृति को भुलाकर भीषण तूफ़ानों में ही सुदर्शन चक्रधारी के अवतरण की तैयारी करें।

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मन्नतों के सब धागों का हासिल

संयमित चित्त और आनँदित दिल

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