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हमने युद्ध नहीं बुद्ध को चाहा है (सम्पादकीय)

मनमोहन शर्मा ‘शरण’ (संस्थापक, सम्पादक)

सर्वप्रथम आप सभी को चैत्र् नवरात्रि की हार्दिक बधाई एवं माँ भगवती की कृपा आप सभी पर बनी रहे, मेरी यही कामना है ।
माँ की कृपा से ज्ञान–भक्ति–वैभव एवं समृद्धि में निरंतर वृद्धि होती रहे, ऐसी मेरी प्रार्थना है ।
यदि मैं भारत की बात करूँ तो एक कृपा तो अवश्य दिखाई या अनुभव होने लगी है कि हम ‘कोरोना’ के भयावह वातावरण से सामान्य दिनचर्या की ओर बढ़ रहे हैं । हाँ, मास्क तब तक हमारे यूँ ही साथ रहेगा जब तक संक्रमित लोगों की संख्या नगण्य नहीं हो जाती ।
रूस के विदेश मंत्री दिल्ली आ पहुंचे हैं, कच्चे तेल की पेशकश करेंगे, संभावना है कि यह डील हो जाए, जिससे निरंतर बढ़ रहे तेल–डीजल के दामों में निकट भविष्य में हमें कमी देखने को मिल सकेगी, जो राहत भरी खबर हो सकती है । किन्तु यह हमें खुशी का वह आभास तो कतई नहीं देगी जो सामान्य स्थिति में हो सकती थी । क्योंकि जिन हालातों के चलते डील की संभावना बनी, उन हालातों की पक्षधर भारतीय मानसिकता कभी भी नहीं रही है । हमने युद्ध नहीं बुद्ध को चाहा है । बुद्ध का दर्शन चाहा है । सर्वेभवन्तु सुखिन: का नारा रहा है हमारा । पूरा विश्व एक कुटुम्भ है, हमने सदैव इसी बात को माना है । फिर कुटुम्ब में दो भाई लड़–मरने को तैयार हो जाएं अथवा खून की होली खेलने लगें तो सुखी कोई नहीं रह सकता ।
‘प्रभुता पाई काही मद नाही’ , बल–शक्ति–वैभव का नशा हावी हो तो व्यक्ति भले–बुरे में अन्तर नहीं कर पाता । यही हो रहा है — आज स्थिति यहां तक आ गई है कि रूस के नागरिक भी युद्ध–नरसंहार का विरोध करने लगे हैं ।
विश्व–बिरादरी को आगे आकर शांति स्थापित करने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए । मुझे लगता है कि भारत इसमें अहम भूमिका निभा सकता था, निभा सकता है । रूस के विदेश मंत्री के साथ अपनी वार्ता में शांति स्थापित करने के लिए दबाव अथवा शांति स्थापित करने के लिए प्रेरित कर सकता है ।
अभी पूरा विश्व मौत के तांडव (कोरोना महामारी) को देखा है–भुगता है । एक स्वर में सभी की मांग है, अब और नहीं–––––––

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